Manuscripts ~ Satyam Shivam Sundaram (सत्यम् शिवम् सुंदरम्): Difference between revisions

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:Page numbers showing "R" and "V" refer to "[[wikipedia:Recto and verso|Recto and Verso]]".
:Page numbers showing "R" and "V" refer to "[[wikipedia:Recto and verso|Recto and Verso]]".
:Sheet 3R (Letter 4) is unpublished and all the rest published in ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapters: 10-11, 1, 26-27, 16-18, 28, 40, 50, 41-42 and 19.


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| 1R || [[image:man0745.jpg|200px]] || [[image:man0745-2.jpg|200px]] || Letter 1 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 10
| 1R || [[image:man0745.jpg|200px]] || [[image:man0745-2.jpg|200px]] || Letter 1 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 10
 
:प्रेम शक्ति है, और जो प्रेम से जीतता है, वही वस्तुतः जीतता है।
:प्रेम जहां है, वहां परमात्मा है, क्योंकि प्रेम परमात्मा की उपस्थिति का प्रकाश है।
:स्मरण रहे कि जब भी तुम्हारा मन क्रोध से भरता है, घृणा से भरता है, तभी तुम अशक्त हो जाते हो और परमात्मा से तुम्हारे संबंध क्षीण हो जाते हैं।
:इसीलिए ही तो क्रोध में, घृणा में, द्वेष में दुख और संताप पैदा होते हैं, संताप की मनोदशा सर्व की सत्ता से स्वयं की जडों के पृथक होने से पैदा होती है।
:प्रेम आनंद से भर देता है, शांति संगीत से और करुणा ऐसी सुगंधियों से जो इस पृथ्वी की नहीं हैं।
:क्यों?
:क्योंकि, उनमें होकर तुम सर्वात्मा के निकट हो जाते हो, क्योंकि उनमें होकर तुम परमात्मा के हृदय में स्थान पा जाते हो, क्योंकि उनमें होकर तुम तुम नहीं रहते, वरन परमात्मा ही तुमसे प्रकट होने लगता है।
:इसीलिए मैं कहता हूं कि जीवन में जो अखंड और अटूट प्रेम को पा लेता है, वह सब पा लेता है।
:एक घटना मुझे स्मरण आती है। मोहम्मद अपने शिष्य अली के साथ किसी मार्ग से गुजर रहे थे। अली के एक शत्रु ने आकर उसे रोक लिया और उसका अपमान करने लगा। अली ने शांति से उसके दुर्वचन सुने। उसकी आंखों में प्रेम और प्रार्थना मालूम होती थी। वह शत्रु की विषाक्त बातों को ऐसे सुनता रहा जैसे वह उसकी प्रशंसा करता हो। उसका धैर्य अदभुत था, लेकिन अंततः उसने भी धैर्य खो दिया और वह शत्रु के तल पर नीचे उतर आया और ईंट का जवाब पत्थर से देने लगा। धीरे-धीरे उसकी आंखें क्रोध से भर गईं और उसके हृदय में घृणा और प्रतिशोध के बादल गरजने लगे। उसका हाथ तलवार पर जा चुका था। मोहम्मद अब तक शांति से बैठे सब देख रहे थे। अचानक वे उठे और
 
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| 1V || [[image:man0746.jpg|200px]] || [[image:man0746-2.jpg|200px]] ||  
| 1V || [[image:man0746.jpg|200px]] || [[image:man0746-2.jpg|200px]] || Letter 1 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 10
 
:अली तथा उसके शत्रु को वहीं छोड कर एक ओर चले गए। इससे अली को बहुत आश्चर्य हुआ और मोहम्मद के प्रति मन में शिकायत भी आई। बाद में जब मोहम्मद मिले तो उसने उनसे कहाः ‘‘आपका यह कैसा व्यवहार? शत्रु मुझे रोके हुए था और आप मुझे बीच में छोड कर चले आए! क्या यह मृत्यु के मुंह में ही छोड आने जैसा नहीं है? ’’ मोहम्मद ने कहाः ‘‘प्यारे! वह मनुष्य निश्चित ही बहुत हिंसक और क्रूर था और उसके भी बहुत क्रोध से भरे हुए थे, लेकिन मैं तुझे शांत और प्रेम से भरा देख कर बहुत आनंदित था। उस समय मैंने देखा कि परमात्मा के दस दूत तेरी रक्षा कर रहे थे और उनके शुभाशीषों की तेरे ऊपर वर्षा हो रही थी। प्रेम और क्षमा के कारण तू सुरक्षित था। लेकिन, जैसे ही तेरा हृदय करुणा को छोड कर कठोर हुआ और तेरी आंखें प्रतिशोध की लपटें प्रकट करने लगीं, वैसे ही मैंने देखा कि वे देवदूत तुझे छोड कर चले गए हैं। उस समय उचित ही था कि मैं भी वहां से हट जाऊं। परमात्मा ने ही तेरा साथ छोड दिया था।’’
 


:Letter 1 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 10
Letter 2 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 11
:Letter 2 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 11
 
:मैं प्रत्येक से पूछता हूं कि जीवन में तुम क्या खोज रहे हो? जीवन की खोज में ही जीवन का अर्थ और मूल्य छिपा है।
:कोई यदि कंकड-पत्थर ही खोजता हो तो उसके जीवन का मूल्य उसकी खोज से ज्यादा कैसे होगा?
:किंतु, अधिक व्यक्ति क्षुद्र की खोज में ही क्षुद्र हो जाते हैं और अंततः पाते हैं कि जीवन की संपदा उन्होंने ऐसी संपदा को खोजने में गंवाई है, जो संपदा ही नहीं थी।
:यह उचित है कि किसी भी यात्रा के पहले हम ठीक से जान लें कि हम कहां पहुंचना चाहते हैं और क्यों पहुंचना चाहते हैं, और यह भी कि क्या गंतव्य यात्रा की कठिनाइयों और श्रम को झेलने योग्य भी है?
:जो विचार कर नहीं चलता, वह अक्सर पाता है कि या तो वह कहीं पहुंचता ही नहीं, या फिर कहीं पहंुच भी जाता है तो जहां पहुंच जाता है, उस स्थान को पहुंचने योग्य ही नहीं पाता।
:मैं चाहता हूं कि ऐसी भूल तुम्हारे जीवन में न हो, क्योंकि ऐसी भूल सारे जीवन को ही नष्ट कर देती है।
:जीवन है छोटा। शक्ति है सीमित। समय है अल्प। इसीलिए, जो विचार से, सावधानी से और सजगता से चलते हैं, वे ही कहीं पहुंच पाते हैं।
:एक फकीर था। नाम था उसका शिब्ली। किसी यात्रा पर था। मार्ग में एक युवक को कहीं तेजी से जाते हुए देखा तो उसने पूछाः ‘‘मित्र, कहां भागे जा रहे हो? ’’ उस युवक ने


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| 2R || [[image:man0747.jpg|200px]] || [[image:man0747-2.jpg|200px]] ||  
| 2R || [[image:man0747.jpg|200px]] || [[image:man0747-2.jpg|200px]] || Letter 2 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 11
 
:बिना ठहरे ही कहाः ‘‘अपने घर।’’ शिब्ली ने इस पर एक बडा अजीब सा सवाल किया। पूछाः ‘‘कौन सा घर? ’’
:मैं भी तुमसे यही पूछता हूं। तुम भागे जा रहे हो। सभी भागे जा रहे हैं। मैं पूछता हूंः ‘‘कहां भागे जा रहे हो? ’’
:यह सारी दौड कहीं अंधी तो नहीं है?
:कहीं ऐसा तो नहीं है कि सब भाग रहे हैं, इसलिए तुम भी भाग रहे हो बिना यह जाने कि कहां जाना है?
:काश, इसके उत्तर में तुम भी वही कह सको, जो उस युवक ने शिब्ली को कहा था, तो मेरे प्राण आनंद से नाच उठेंगे!
:उस युवक ने कहा थाः ‘‘एक ही तो घर है। परमात्मा का घर। उसकी ही खोज में हूं।’’
:निश्चय ही शेष सब स्वप्न है--शेष किसी भी घर की खोज स्वप्न है।
:घर तो एक ही है--वास्तविक घर तो एक ही हैः परमात्मा का घर। जो उसे खोजना चाहता है, उसे स्वयं को ही खोजना पडता है, क्योंकि स्वयं में ही वह छिपा हुआ है।
:क्या परमात्मा के अतिरिक्त कोई और घर भी है?
:और क्या स्वयं के अतिरिक्त परमात्मा को कहीं और भी पाया जा सकता है?
:मैं शिब्ली की जगह होता तो उस भागते युवक से एक सवाल और पूछता। पता नहीं वह क्या उत्तर देता, लेकिन सवाल तो मैं तुम्हें बता ही दूं।
:मैं उससे कहताः ‘‘मित्र, परमात्मा को पाना है तो भाग क्यों रहे हो? कहां भागे जा रहे हो? जो यहीं है, उसे भाग कर कैसे पाओगे? जो इसी क्षण है, अभी है, उसे कभी भविष्य में पाने की कामना क्या भ्रांति नहीं? और जो भीतर है, उसे भाग कर खोया ही जा सकता है। उसे पाने के लिए क्या उचित नहीं है कि ठहरो और रुको और स्वयं में देखो? ’’
 


:Letter 2 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 11
Letter 3 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 1
:Letter 3 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 1
 
:एक कथा मैंने सुनी थी। हजारों वर्ष पूर्व परमात्मा के मंदिरों का एक नगर सागर में डूब गया था। उस सागर में डूबे उन मंदिरों की घंटियां आज भी बजती रहती हैं। शायद पानी के


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| 2V || [[image:man0748.jpg|200px]] || [[image:man0748-2.jpg|200px]] || Letter 3 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 1
| 2V || [[image:man0748.jpg|200px]] || [[image:man0748-2.jpg|200px]] || Letter 3 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 1
 
:धक्के उन्हें बजा देते होंगे, या यहां-वहां भागती मछलियों से टकरा कर वे बजती रहती होंगी। जो भी हो, घंटियां आज भी बजती हैं। और आज भी उनके मधुर संगीत को उस सागर के तट पर जाकर सुना जा सकता है।
:मैं भी उस संगीत को सुनना चाहता था। मैं उस सागर की खोज में गया। बहुत वर्षों की भटकन के बाद अंततः उस सागर-तट पर पहुंच ही गया। किंतु यह क्या, वहां तो सागर का तुमुलनाद गूंज रहा था--लहरों के थपेडे चट्टानों से टकरा कर उस एकांत में अनंत गुना हो प्रतिध्वनित हो रहे थे। न तो वहां कोई संगीत था, न किन्हीं मंदिरों की बजती कोई घंटियां थीं। मैं तट पर कान लगा कर सुनता था, लेकिन वहां तो तट पर टूटती लहरों की ध्वनि के अतिरिक्त और कुछ भी न था।
:फिर भी मैं रुका रहा। वस्तुतः लौटने का मार्ग ही मैं भूल गया था। अब तो वह अपरिचित निर्जन सागर-तट ही मेरी समाधि बनने को था।
:फिर धीरे-धीरे सागर में डूबे मंदिरों की घंटियां सुनने का ख्याल भी मुझे भूल गया। मैं उस सागर के किनारे ही बस गया था।
:फिर एक रात्रि अचानक मैंने पाया कि डूबे मंदिरों की घंटियां बज रही हैं और उनका मधुुर संगीत मेरे प्राणों को आंदोलित कर रहा है।
:मैं उस संगीत को सुनकर जाग गया और फिर तब से सो नहीं सका। अब तो भीतर कोई निरंतर ही जागा हुआ है। निद्रा सदा को ही चली गई है।
:और जीवन आलोक से भर गया है, क्योंकि जहां निद्रा नहीं है, वहां अंधकार नहीं है।
:और मैं आनंद में हूं...नहीं, नहीं...मैं आनंद ही हो गया हूं, क्योंकि जहां परमात्मा के मंदिर का संगीत है, वहां दुख कहां?
:क्या तुम भी उस सागर के किनारे चलना चाहते हो? क्या तुम्हें भी परमात्मा के डूबे मंदिर का संगीत सुनना है?
:तो चलो। स्वयं के भीतर चलो। स्वयं का हृदय ही वह सागर है और उसकी गहराइयों में ही परमात्मा के डूबे हुए मंदिरों का नगर है।
:लेकिन उसके मंदिरों का संगीत सुनने में केवल वे ही समर्थ होते हैं, जो सब भांति शांत और शून्य हों।
:विचार और वासना का कोलाहल जहां है, वहां उसका संगीत कैसे सुन पडेगा? उसे पाने की वासना तक भी उसे पाने में बाधा बन जाती है।
 
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| 3R || [[image:man0749.jpg|200px]] || [[image:man0749-2.jpg|200px]] || Letter 4
| 3R || [[image:man0749.jpg|200px]] || [[image:man0749-2.jpg|200px]] || Letter 4


:एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि क्या आपको परमात्मा से कोई शिकायत नहीं है?
:एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि क्या आपको परमात्मा से कोई शिकायत नहीं है?
:मैं क्या कहता, थोड़ी देर तक तो चुप ही रह गया; क्योंकि जब तक परमात्मा का पता न हो तभी तक शिकायत हो सकती है। और जब तक शिकायत है तब तक उसका पता नहीं हो सकता। परमात्मा की अनुभूति तो केवल उस चित्त में ही हो सकती है जो कि सब आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से मुक्त हो गया है। और जहां आकांक्षा नहीं, अपेक्षा नहीं, वहां शिकायत कैसी? जो है, जो हो रहा है, उसके सहज स्वीकार से ही उस चित्त भूमि का निर्माण होता है, जहां कि परमात्मा के बीज अंकुरित हो सकें।
:मैं क्या कहता, थोड़ी देर तक तो चुप ही रह गया; क्योंकि जब तक परमात्मा का पता न हो तभी तक शिकायत हो सकती है। और जब तक शिकायत है तब तक उसका पता नहीं हो सकता। परमात्मा की अनुभूति तो केवल उस चित्त में ही हो सकती है जो कि सब आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से मुक्त हो गया है। और जहां आकांक्षा नहीं, अपेक्षा नहीं, वहां शिकायत कैसी? जो है, जो हो रहा है, उसके सहज स्वीकार से ही उस चित्त भूमि का निर्माण होता है, जहां कि परमात्मा के बीज अंकुरित हो सकें।
:एक हिब्रू कथा है कभी एक फकीर हुआ, अजीफा। वह परमात्मा की खोज में भटकता था। प्रार्थनाएं करते-करते वह थक गया था और उपवास करते-करते उसके अंतिम दिन निकट आ गए थे। लेकिन परमात्मा दूर था, सो दूर ही रहा। फिर भी उसकी कोई शिकायत न थी। और शत्रु उसके पीछे पड़े थे। बुढ़ापे में भी उसे एक गांव से दूसरे गांव भागना पड़ रहा था। सब ने उसका साथ छोड़ दिया था। उसके पास एक कंदील थी जिसके प्रकाश में वह धर्मशास्त्र पढ़ लेता था। और था एक मुर्गा जो उसे भोर होते ही जगा देता था। और था एक गधा जिस पर वह एक गांव से दूसरे गांव यात्रा करता रहता था। यही थे उसके साथी। और हृदय में परमात्मा के लिए प्रार्थना थी और धन्यवाद था।
:एक हिब्रू कथा है कभी एक फकीर हुआ, अजीफा। वह परमात्मा की खोज में भटकता था। प्रार्थनाएं करते-करते वह थक गया था और उपवास करते-करते उसके अंतिम दिन निकट आ गए थे। लेकिन परमात्मा दूर था, सो दूर ही रहा। फिर भी उसकी कोई शिकायत न थी। और शत्रु उसके पीछे पड़े थे। बुढ़ापे में भी उसे एक गांव से दूसरे गांव भागना पड़ रहा था। सब ने उसका साथ छोड़ दिया था। उसके पास एक कंदील थी जिसके प्रकाश में वह धर्मशास्त्र पढ़ लेता था। और था एक मुर्गा जो उसे भोर होते ही जगा देता था। और था एक गधा जिस पर वह एक गांव से दूसरे गांव यात्रा करता रहता था। यही थे उसके साथी। और हृदय में परमात्मा के लिए प्रार्थना थी और धन्यवाद था।
:एक अंधेरी अमावस की रात्रि में बहुत थका-मांदा वह एक गांव में गया। किंतु उस गांव के लोगों ने उसे शरण नहीं दी। उसने उन्हें धन्यवाद दिया और परमात्मा को भी और गांव के बाहर जाकर एक सूखी बावली में ठहर गया। उसने अपनी कंदील जलाई लेकिन हवा के तेज झोंकों ने उसे बुझा दिया। उसने परमात्मा को धन्यवाद दिया और विश्राम करने को लेट गया। लेकिन तभी एक भेड़िए ने उसके मुर्गे को मार डाला और एक सिंह उसके गधे को खा गया। उसने पुनः भगवान को धन्यवाद दिया और सोने की कोशिश की। और तभी उसी रात्रि, जबकि वह बिल्कुल असहाय था, भूखा था, प्यासा था, थका-मांदा था और उससे सब कुछ छीन लिया गया था; उसका धन्यवाद देने वाला हृदय परमात्मा के दर्शन को उपलब्ध हुआ। उसने सत्य को जाना। क्योंकि वह समता को और स्वीकार को उपलब्ध हो गया था।
:एक अंधेरी अमावस की रात्रि में बहुत थका-मांदा वह एक गांव में गया। किंतु उस गांव के लोगों ने उसे शरण नहीं दी। उसने उन्हें धन्यवाद दिया और परमात्मा को भी और गांव के बाहर जाकर एक सूखी बावली में ठहर गया। उसने अपनी कंदील जलाई लेकिन हवा के तेज झोंकों ने उसे बुझा दिया। उसने परमात्मा को धन्यवाद दिया और विश्राम करने को लेट गया। लेकिन तभी एक भेड़िए ने उसके मुर्गे को मार डाला और एक सिंह उसके गधे को खा गया। उसने पुनः भगवान को धन्यवाद दिया और सोने की कोशिश की। और तभी उसी रात्रि, जबकि वह बिल्कुल असहाय था, भूखा था, प्यासा था, थका-मांदा था और उससे सब कुछ छीन लिया गया था; उसका धन्यवाद देने वाला हृदय परमात्मा के दर्शन को उपलब्ध हुआ। उसने सत्य को जाना। क्योंकि वह समता को और स्वीकार को उपलब्ध हो गया था।


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| 3V || [[image:man0750.jpg|200px]] || [[image:man0750-2.jpg|200px]] || Letter 5 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 26
| 3V || [[image:man0750.jpg|200px]] || [[image:man0750-2.jpg|200px]] || Letter 5 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 26
 
:सुबह से सांझ तक सैकडों लोगों को मैं एक दूसरे की निंदा में संलग्न देखता हूं। हम सब कितना शीघ्र दूसरों के संबंध में निर्णय कर लेते हैं, जब कि किसी के भी संबंध में निर्णय करने से कठिन और कोई बात नहीं है। शायद परमात्मा के अतिरिक्त किसी के संबंध में निर्णय करने का कोई अधिकारी नहीं, क्योंकि एक व्यक्ति को--एक छोटे से, साधारण से मनुष्य को भी जानने के लिए जिस धैर्य की अपेक्षा है, वह परमात्मा के सिवाय और किसमें है?
:क्या हम एक दूसरे को जानते हैं? वे भी जो एक दूसरे के बहुत निकट हैं, क्या वे भी एक दूसरे को जानते हैं?
:मित्र, क्या मित्र भी एक दूसरे के लिए अपरिचित और अजनबी ही नहीं बने रहते हैं?
:लेकिन, हम तो अपरिचितों को भी जांच लेते हैं और निर्णय ले लेते हैं और वह भी कितनी शीघ्रता से!
:ऐसी शीघ्रता अत्यंत कुरूप होती है। लेकिन जो व्यक्ति अन्यों के संबंध में विचार करता रहता है, वह अपने संबंध में विचार करने की बात भूल ही जाता है। और ऐसी शीघ्रता निपट अज्ञान भी है, क्योंकि ज्ञान के साथ होता है धैर्य--अनंत धैर्य।
:जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है और जो जल्दी अविचारपूर्वक निर्णय लेने के आदी हो जाते हैं, वे उसे जानने से वंचित ही रह जाते हैं।
:एक घटना मैंने सुनी है। पहले महायुद्ध के समय की बात है। एक कमांडर ने अपने सैनिकों को कहाः ‘‘सैनिको, बहुत खतरनाक कार्य के लिए पांच सैनिक चाहिए। उस कार्य में जीवन के बचने की संभावना नहीं है। इसीलिए जो स्वेच्छा से जोखिम उठाने को तैयार हों, वे अपनी पंक्ति से दो कदम आगे आवें।’’ वह अपनी बात पूरी कह भी नहीं पाया था कि एक घुडसवार ने आकर उसका ध्यान बंटा लिया। वह कोई अत्यंत आवश्यक संदेश उसे देने आया था। संदेश को लेने और पढ़ने के बाद उसने आंखें अपनी टुकडी के सैनिकों की ओर उठाईं। उनकी पंक्तियों को अखंड देख, वह क्रोध से भर उठा। उसकी आंखों से चिनगारियां छूटने लगीं और वह चिल्लायाः ‘‘कायरो, नामर्दो, क्या एक भी मर्द तुम्हारे बीच में नहीं है? ’’ उसने और भी गालियां उन्हें दीं। दंड की धमकियां भी दीं, और तभी उसे ज्ञात हुआ कि एक नहीं सारे सैनिक ही दो कदम आगे बढ़ गए थे।
 
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| 4R || [[image:man0751.jpg|200px]] || [[image:man0751-2.jpg|200px]] || Letter 6 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 27
| 4R || [[image:man0751.jpg|200px]] || [[image:man0751-2.jpg|200px]] || Letter 6 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 27
 
:मैं एक दिन राह के किनारे बैठा था। वृक्षों की घनी छाया में बैठा-बैठा राह चलते लोगों को देखता रहा। उन्हें देख कर बहुत से विचार मेरे मन में आए। वे कहीं भागे चले जा रहे थे। बच्चे, जवान, बू.ढे, स्त्री, पुरुष--सभी भागे जाते थे। उनकी आंखें कुछ खोजती प्रतीत होती थीं और उनके पैर किसी बडी यात्रा में संलग्न थे। लेकिन वे कहां भागे जा रहे थे? क्या था उनका गंतव्य? और क्या अंत में वे पावेंगे कि कहीं पहुंचे?
:यही विचार तुम्हें देख कर भी मेरे मन में उठता है।
:और उस विचार के साथ ही साथ मैं एक गहरी पीडा से भर जाता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम कहीं भी नहीं पहुंचोगे। नहीं पहुंचोगे इसलिए, कि तुम्हारा मन और तुम्हारे चरण परमात्मा के विरोध में चल रहे हैं।
:जीवन में कहीं पहुंचने का राज हैः परमात्मा की दिशा में चलना। उसके अतिरिक्त कोई भी दिशा, कोई भी मार्ग कहीं नहीं पहुंचाता। परमात्मा की दिशा में बहो। उसके विपरीत तैर कर मनुष्य केवल स्वयं को तोडता और नष्ट करता है।
:मनुष्य का भय क्या है? उसकी चिंता क्या है? उसका दुख क्या है? उसकी मृत्यु क्या है?
:मैंने देखाः परमात्मा के विरोध में तैरने की अहं चेष्टा से ही ये सब रुग्णताएं पैदा होती हैं।
:अहंकार दुख है। अहंकार रोग है। क्योंकि अहंकार परमात्मा के विरोध की दिशा है। और परमात्मा का विरोध स्वयं का विरोध है।
:मैंने एक घटना सुनी है। एक छोटे से वायुयान का चालक 150 मील प्रतिघंटा की चाल से उडा जा रहा था। अचानक उसने पाया कि वह एक भयंकर आंधी की धारा में पड गया है। अंधड बहुत तूफानी था। संभवतः वह भी 150 मील प्रतिघंटा की गति से ही यान की विरोधी दिशा में भागा जा रहा था। इस प्रचंड आंधी में फंसे चालक के प्राण संकट में थे और उसके प्राण का बचना संभव नहीं दीखता था। आश्चर्य तो यह था कि यान के सभी यंत्र यथावत कार्य कर रहे थे और इंजिन शोर कर रहे थे, लेकिन यान एक इंच भी आगे नहीं बढ़ रहा था। बाद में उस चालक ने कहाः ‘‘कितना विचित्र अनुभव था वह! 150 मील प्रतिघंटा की गति से भागते हुए एक इंच भी आगे न बढ़ पाना! कितनी गति से मैं
 
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| 4V || [[image:man0752.jpg|200px]] || [[image:man0752-2.jpg|200px]] ||  
| 4V || [[image:man0752.jpg|200px]] || [[image:man0752-2.jpg|200px]] || Letter 6 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 27
 
:जा रहा था और फिर भी कहीं नहीं जा रहा था!’’
:क्या ऐसा ही जीवन में भी नहीं होता है? नहीं हो रहा है?
:परमात्मा की दिशा में जो नहीं चल रहे हैं, वे भी पाएंगे कि चल तो बहुत रहे हैं, लेकिन पहुंच कहीं भी नहीं रहे हैं।
:परमात्मा यानी स्वयं की आत्यंतिक सत्ता। परमात्मा यानी स्वरूप। और, क्या यह ठीक ही नहीं है कि स्वयं के विरोध में चल कर कोई कहीं कैसे पहुंच सकता है?
:जीवन का आनंद उनका है, जो स्वयं में जीते और स्वयं को जानते और स्वयं को उपलब्ध करते हैं।
 


:Letter 6 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 27
Letter 7 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 16
:Letter 7 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 16
 
:एक बुढ़िया बहुत बीमार थी। घर में वह अकेली थी इसलिए बहुत कठिनाई में पडी थी। एक दिन सुबह-सुबह ही दो अत्यंत भद्र और धार्मिक दीखनेवाली महिलाएं उसके पास आईं। उनके माथों पर चंदन था और हाथों में रुद्राक्ष की मालाएं। उन्होंने आकर उस बुढ़िया की सेवा शुरू कर दी और कहाः ‘‘परमात्मा की प्रार्थना से सब ठीक हो जाएगा। विश्वास शक्ति है और विश्वास कभी निष्फल नहीं जाता है।’’ उस सीधी बुढ़िया ने उनकी बातों पर विश्वास कर लिया। वह अकेली थी और अकेला व्यक्ति किसी पर विश्वास करना चाहता है। वह पीडा में थी और पीडा में मनुष्य का मन सहज ही विश्वासी हो जाता है। उन अपरिचित महिलाओं ने दिन भर उसकी सेवा की। सेवा और दिन भर की धार्मिक बातों के कारण बुढ़िया का विश्वास और भी ब.ढ गया। फिर रात्रि में उन महिलाओं के निर्देशानुसार वह एक चादर ओ.ढ कर भूमि पर लेटी, ताकि उसके स्वास्थ्य के लिए परमात्मा से प्रार्थना की जा सके। धूप जलाई गई। सुगंध छिडकी गई। एक महिला उसके सिर पर हाथ रख कर अबूझ मंत्रों का उच्चार करने लगी, और फिर मंत्रों की एक सुरीली ध्वनि दे बुढ़िया को थोडी ही देर में सुला दिया। आधी रात को उसकी नींद खुली। घर में अंधकार था। उसने दीया जलाया तो पाया कि वे अपरिचित महिलाएं न मालूम कब की चली गई हैं। घर के द्वार खुले पडे हैं और उसकी तिजोरी भी टूटी पडी है। विश्वास अवश्य ही फलदायी हुआ था। बुढ़िया को तो नहीं, लेकिन उन धूर्त महिलाओं को। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि विश्वास सदा ही धूर्तों को फलदायी हुआ है।


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| 5R || [[image:man0753.jpg|200px]] || [[image:man0753-2.jpg|200px]] || Letter 7 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 16
 
:धर्म विश्वास नहीं, विवेक है। वह अंधापन नहीं, आंखों का उपचार है।
:किंतु शोषण के लिए विवेक बाधा है और इसीलिए विश्वास का विष पिलाया जाता है।
:विचार विद्रोह है और चूंकि विद्रोही का शोषण असंभव है, इसीलिए विश्वास की शिक्षा दी जाती है।
:विचार व्यक्ति को मुक्त करता है, उसे व्यक्ति बनाता है। लेकिन शोषण के लिए तो भेडें चाहिए, भीड का अनुगमन करनेवाले दुर्बल चित्त व्यक्ति चाहिए। इसीलिए विचार की हत्या की जाती है और विश्वास पाला-पोसा जाता है।
:मनुष्य असहाय है, इसीलिए असहायावस्था में, अकेलेपन में, विश्वास के लिए तैयार हो जाता है।
:जीवन दुख है, इसीलिए दुख से पलायन करने के लिए किसी भी विश्वास और आस्था के प्रति शरणागत हो जाता है।
:यह स्थिति शोषकों के लिए, स्वार्थियों के लिए निश्चय ही स्वर्ण-अवसर बन जाती है। धर्म धूर्तों के हाथों में है, इसीलिए ही तो जगत में अधर्म है। धर्म की जब तक विश्वास से मुक्ति नहीं होगी, तब तक वास्तविक धर्म का जन्म नहीं हो सकता है।
:धर्म जब विवेक की अग्नि से संयुक्त होता है, तब उससे स्वतंत्रता, सत्य और शक्ति का उदभव होता है। धर्म शक्ति है, क्योंकि विचार शक्ति है। धर्म प्रकाश है, क्योंकि प्रज्ञा प्रकाश है। धर्म मुक्ति है, क्योंकि विवेक मुक्ति है।
 
Letter 8 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 17


:Letter 7 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 16
:धर्म, धर्म, धर्म। धर्म का कितना विचार चलता है, लेकिन परिणाम क्या है?
:Letter 8 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 17
:मैं जिसे सुनता हूं, वही शास्त्र- उद्धृत करता है, लेकिन परिणाम क्या है?
:मनुष्य निरंतर दुख और पीडा में डूबता जा रहा है, और हम हैं कि अपने सीखे हुए सिद्धांत दुहराए जा रहे हैं।
:जीवन प्रतिक्षण पशुता की ओर झुकता जा रहा है और हम हैं कि पत्थरों के पुराने मंदिरों में सदा की भांति सिर झुकाए चले जा रहे हैं।
:शब्द--मृत शब्दों में हम इतने घिरे हैं कि शायद सत्य को देखने की क्षमता ही हमने खो दी है।


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| 5V || [[image:man0754.jpg|200px]] || [[image:man0754-2.jpg|200px]] || Letter 8 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 17
| 5V || [[image:man0754.jpg|200px]] || [[image:man0754-2.jpg|200px]] || Letter 8 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 17
 
:शास्त्रों से चित्त हमारा इतना आबद्ध है कि स्वयं अनुसंधान में जाने का सवाल ही नहीं उठता है।
:और, शायद इसीलिए विचार और आचार के बीच अलंघ्य खाई खुद गई है। और, शायद इसीलिए जो हम कहते हैं कि हम चाहते हैं, ठीक उसके विपरीत ही हम जीए जाते हैं। और, आश्चर्य तो यह है कि यह विरोधाभास हमें दिखाई भी नहीं पडता है!
:आंखें होते हुए भी क्या हम अंधे नहीं हो गए हैं?
:मैं इस जीवन स्थिति पर सोचता हूं तो दिखाई पडता है कि जो सत्य स्वयं ही उपलब्ध न किए गए हों, वे ऐसी ही उलझन में ले जाते हैं।
:सत्य स्वयं से आवे तो मुक्त करता है और स्वयं से न आवे तो और भी गहरे बंधनों में बांध देता है। सिखाए हुए सत्यों से अधिक असत्य और कुछ भी नहीं होता है।
:और, ऐसे उधार सत्य, जीवन में अत्यंत पीडादायी स्वविरोध पैदा करते हैं।
:एक पहाडी सराय में एक पाला हुआ तोता था। उसके मालिक ने जो उसे सिखाया था, वह उसी को दिन-रात दुहराया करता था। वह कहा करता थाः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’ एक यात्री उस सराय में पहली बार ठहरा था। उस तोते की वेदना भरी वाणी उसके मर्म को छू लेती थी। वह भी अपने देश की स्वतंत्रता के युद्ध में अनेक बार कैद में रह चुका था। और तोता जब उस पहाडी के सन्नाटे को तोड कर कहताः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता,’’ तो उसके हृदय के तार झनझना उठते थे। उसे अपने कैद के दिनों की स्मृति हो आती और स्मरण हो आता कि ऐसे ही तो उसकी अंतरात्मा भी चिल्लाती थीः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’ रात्रि हो गई तो वह यात्री उठा और उसने स्वतंत्रता के आकांक्षी उस तोते को उसकी कैद से मुक्त करना चाहा। यात्री तोते को उसके पिंजडे से बाहर खींचता था, लेकिन तोता निकलने को राजी नहीं होता था। इसके विपरीत अपने सींकचों को पकड कर वह चिल्लाता थाः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’ बडी मुश्किल से वह यात्री तोते को बाहर निकाल पाया। उसे आकाश में उडा कर वह निशिं्चत हो सो गया। लेकिन सुबह उठ कर ही उसने देखा कि तोता अपने पिंजडे में आनंद से बैठा है और चिल्ला रहा हैः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’
 
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| 6R || [[image:man0755.jpg|200px]] || [[image:man0755-2.jpg|200px]] || Letter 9 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 18
| 6R || [[image:man0755.jpg|200px]] || [[image:man0755-2.jpg|200px]] || Letter 9 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 18
 
:एक घटना मैंने सुनी है। युद्ध के दिन थे और अचानक बमबारी शुरू हो गई थी। किसी निर्जन रास्ते पर एक धर्म-पुरोहित कहीं जा रहा था। उसने जल्दी से भाग कर पास में ही बनी लोमडियों की एक गुफा में शरण ली। जैसे ही वह भीतर पहुंचा, उसने देखा कि एक सैनिक अफसर पहले ही से वहां छिपा हुआ है। वह सैनिक अफसर एक कोने में हट गया, ताकि नये आगंतुक के लिए जगह हो सके। तब पास में ही बम गिरने लगे। पुरोहित के हाथ-पैर कंपने लगे। उसने घुटने टेक कर परमात्मा से प्रार्थना शुरू कर दी। वह बहुत जोर-जोर से प्रार्थना कर रहा था। उसने बीच में आंख उठा कर देखा तो पाया कि वह सैनिक अफसर भी उसी की भांति जोर-जोर से प्रार्थना कर रहा है। फिर जब आक्रमण बंद हो गया तो धर्म-पुरोहित ने उस सैनिक अफसर से पूछाः ‘‘बंधु, मैंने देखा कि आप भी प्रार्थना कर रहे थे!’’ वह सैनिक अफसर हंसने लगा और बोलाः ‘‘महानुभाव, लोमडियों की गुफाओं में नास्तिक कहां? ’’
:क्या तुम भी तो भय के कारण ही भगवान की खोज नहीं कर रहे हो? क्या तुम्हारी प्रार्थनाएं भी तो भय पर ही आधारित नहीं हैं?
:स्मरण रहे कि भय पर प्रतिष्ठित धर्म, सत्य धर्म नहीं है।
:मैं भयभीत आस्तिक की बजाय भय-शून्य नास्तिक को ही पसंद करता हूं, क्योंकि भय से भगवान तक पहुंचना असंभव है।
:सत्य को पाने की पहली शर्त तो अभय है।
:विचार तो करोः क्या भय कभी प्रेम बन सकता है? और यदि भय प्रेम नहीं बनता तो प्रार्थना कैसे बनेगा?
:प्रार्थना तो प्रेम की ही पूर्णता है। किंतु, मनुष्य के द्वारा बनाए गए सभी मंदिरों की बुनियादों में भय की ईंटें हैं और भय के द्वारा ग.ढा हुआ भगवान भय की भावनाओं से ही निर्मित है।
:इसलिए ही तो हमारा सभी कुछ असत्य हो गया है। क्योंकि जिनका भगवान ही सत्य नहीं है, उनका और क्या सत्य हो सकता है?
:और जिनका प्रेम असत्य है, जिनकी प्रार्थना असत्य है, यदि उनके प्राण ही असत्य हो गए हों तो आश्चर्य कैसा?
 
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| 6V || [[image:man0756.jpg|200px]] || [[image:man0756-2.jpg|200px]] ||  
| 6V || [[image:man0756.jpg|200px]] || [[image:man0756-2.jpg|200px]] || Letter 9 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 18
 
:प्रेम से--केवल प्रेम से--ही प्रार्थना सत्य होती है।
:और ज्ञान से--केवल ज्ञान से--ही उसे जाना जाता है जो कि वस्तुतः है। मैं कहता हूं प्रेम करो, क्योंकि प्र्रेम की प्रगा.ढता ही जीवन को प्रार्थना में परिणत कर देती है। मैं कहता हूं स्वयं की प्रज्ञा को जगाओ, क्योंकि उसका जागरण ही परमात्मा का दर्शन है।
:प्रेम और प्रज्ञा--जो इन दो बीज-मंत्रों को समझ लेता है, वह सब समझ जाता है, जो समझना चाहिए और जो समझने योग्य है और जो समझा जा सकता है।
:परमात्मा का मंदिर कहां है? जब कोई मुझसे पूछता है तो मैं कहता हूं प्रेम में और प्रज्ञा में।
:निश्चय ही प्रेम परमात्मा है, प्रज्ञा परमात्मा है।
 


:Letter 9 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 18
First part of Letter 10 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 28
:Letter 10 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 28
 
:मित्रो! मैं क्या सिखाता हूं। एक छोटा सा राज मैं सिखाता हूं। संसार में सम्राट बनने का राज मैं सिखाता हूं।
:और इस छोटे से राज से बडा राज और क्या हो सकता है?
:लेकिन, शायद तुम कहो कि संसार में सभी सम्राट कैसे हो सकते हैं? मैं कहता हूंः ‘‘हो सकते हैं। एक ऐसा साम्राज्य भी है, जहां सभी सम्राट हो सकते हैं।’’
:लेकिन, जिस संसार को हम जानते हैं, वहां तो सभी गुलाम हैं। वहां तो वे भी गुलाम हैं, जो स्वयं को सम्राट समझने के भम्र में हैं।
:एक जगत मनुष्य के बाहर है। एक जगत मनुष्य के भीतर भी है। बाहर के जगत में कोई कभी सम्राट नहीं हो सका। हालांकि अधिकतम लोगों ने उसके लिए संघर्ष किया है।
:शायद तुम भी उसी संघर्ष में हो। उसी प्रतियोगिता में। तुम्हारी दौड भी शायद उसी के लिए है।
:लेकिन जिसे सम्राट होना हो, उसे संसार को नहीं, स्वयं को ही जीतना पडता है।
:क्राइस्ट ने कहाः ‘‘परमात्मा का साम्राज्य तुम्हारे भीतर ही है।’’
:क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है कि जिन्होंने बाहर के राज्य को जीता है, उन्होंने स्वयं को खो दिया है? और जो स्वयं को ही खो दे, वह सम्राट कैसे होगा? सम्राट होने के लिए कम से कम स्वयं होना तो अनिवार्य ही है।
:नहीं, नहीं। बाहर का द्वार और भी दरिद्रता में ले जाता है। उस जगत में जो सम्राट बने दीखते हैं, वे अपने गुलामों के भी गुलाम होते हैं।
:और, वासनाएं, तृष्णाएं, कामनाएं मुक्त नहीं करतीं, वरन सूक्ष्म से सूक्ष्म और सख्त से सख्त बंधनों में बांध देती हैं।


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| 7R || [[image:man0757.jpg|200px]] || [[image:man0757-2.jpg|200px]] || Letter 11 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 40
| 7R || [[image:man0757.jpg|200px]] || [[image:man0757-2.jpg|200px]] || Letter 11 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 40
 
:मैं एक महानगरी में था। वहां कुछ युवक मिलने आए। वे पूछने लगेः ‘‘क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं? ’’ मैंने कहाः ‘‘नहीं। विश्वास का और ईश्वर का क्या संबंध? मैं तो ईश्वर को जानता हूं।’’
:फिर मैंने उनसे एक कहानी कही।
:किसी देश में क्रांति हो गई थी। वहां के क्रांतिकारी सभी कुछ बदलने में लगे थे। धर्म को भी वे नष्ट करने पर उतारू थे। उसी सिलसिले में एक वृद्ध फकीर को पकड कर अदालत में लाया गया। उस फकीर से उन्होंने पूछाः ‘‘ईश्वर में क्यों विश्वास करते हो? ’’ वह फकीर बोलाः ‘‘महानुभाव, विश्वास मैं नहीं करता। लेकिन, ईश्वर है। अब मैं क्या करूं? ’’ उन्होंने पूछाः ‘‘यह तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि ईश्वर है? ’’ वह बू.ढा बोलाः ‘‘आंखें खोल कर जब से देखा, तब से उसके अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं पडता है।’’
:उस फकीर के प्रत्युत्तरों ने अग्नि में घृत का काम किया। वे क्रांतिकारी बहुत क्रुद्ध हो गए और बोलेः ‘‘शीघ्र ही हम तुम्हारे सारे साधुओं को मार डालेंगे। फिर...? ’’
:वह बू.ढा हंसा और बोलाः ‘‘जैसी ईश्वर की मर्जी!’’
:‘‘लेकिन हमने तो धर्म के सारे चिह्नों को ही मिटा डालने का निश्चय किया है। ईश्वर का कोई भी चिह्न हम संसार में न छोडेंगे।’’
:वह बू.ढा बोलाः ‘‘बेटे! यह बडा ही कठिन काम तुमने चुना है, लेकिन ईश्वर की जैसी मर्जी। सब चिह्न कैसे मिटाओगे? जो भी शेष होगा, वही उसकी खबर देगा। कम से कम तुम तो शेष रहोगे ही, तो तुम्हीं उसकी खबर दोगे। ईश्वर को मिटाना असंभव है, क्योंकि ईश्वर तो समग्रता है।’’
:ईश्वर को एक व्यक्ति की भांति सोचने से ही सारी भ्रांतियां खडी हो गई हैं।
:ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं। वह तो जो है, वही है।
:और ईश्वर में विश्वास करने के विचार से भी बडी भूल हो गई है।
:प्रकाश में विश्वास करने का क्या अर्थ? उसे तो आंखें खोल कर ही जाना जा सकता है।
:विश्वास अज्ञान का समर्थक है और अज्ञान एकमात्र पाप है।
:आंखों पर पट्टियां बंधा विश्वास नहीं, वरन पूर्णरूपेण खुली हुई आंखोंवाला विवेक ही मनुष्य को सत्य तक ले जाता है।
 
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| 7V || [[image:man0758.jpg|200px]] || [[image:man0758-2.jpg|200px]] || Letter 12 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 50
| 7V || [[image:man0758.jpg|200px]] || [[image:man0758-2.jpg|200px]] || Letter 11 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 40
 
:और, सत्य ही परमात्मा है। सत्य के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है।
 
 
First part of Letter 12 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 50
 
:एक दिन मैं सुबह-सुबह उठ कर बैठा ही था कि कुछ लोग आ गए। उन्होंने मुझसे कहाः ‘‘आप के संबंध में कुछ व्यक्ति बहुत आलोचना करते हैं। कोई कहता है आप नास्तिक हैं। कोई कहता है अधार्मिक। आप इन सब व्यर्थ की बातों का उत्तर क्यों नहीं देते? ’’ मैंने कहाः ‘‘जो बात व्यर्थ है, उसका उत्तर देने का सवाल ही कहां है? क्या उत्तर देने योग्य मान कर हम स्वयं ही उसे सार्थक नहीं मान लेते हैं? ’’ यह सुन कर उनमें से एक ने कहाः ‘‘लेकिन लोक में गलत बात चलने देना भी तो ठीक नहीं।’’ मैंने कहाः ‘‘ठीक कहते हैं। लेकिन जिन्हें आलोचना ही करना है, निंदा ही करनी है, उन्हें रोकना कभी भी संभव नहीं हुआ है। वे बडे आविष्कारक होते हैं और सदा ही नये मार्ग निकाल लेते हैं। इस संबंध में मैं आपको एक कथा सुनाता हूं।’’ और जो कथा मैंने उनसे कही, वही मैं आपसे भी कहता हूं।
:पूर्णिमा की रात्रि थी। शुभ्र ज्योत्स्ना में सारी पृथ्वी डूबी हुई थी। शंकर और पार्वती अपने प्यारे नंदी पर सवार होकर भ्रमण को निकले थे। किंतु वे जैसे ही थोडे आगे गए थे कि कुछ लोग उन्हें मार्ग में मिले। उन्हें नंदी पर बैठे देख कर उन लोगों ने कहाः ‘‘देखो बेशर्मों को। बैल की जान में जान नहीं है और दो-दो उस पर चढ़ कर बैठे हैं!’’ उनकी यह बात सुनी तो पार्वती नीचे उतर गईं और पैदल चलने लगीं। किंतु थोडे ही दूर जाने पर फिर कुछ लोग मिले। वे बोलेः ‘‘अरे मजा तो देखो, सुकुमार अबला को पैदल चला कर यह कौन बैल पर बैठा चला जा रहा है भाई! बेशर्मी की भी हद है!’’ यह सुन कर शंकर नीचे उतर आए और पार्वती को नंदी पर बैठा दिया। लेकिन कुछ ही कदम गए होंगे कि फिर कुछ लोगों ने कहाः ‘‘कैसी बेहया औरत है; पति को पैदल चला कर खुद बैल पर बैठी है। मित्रो, कलियुग आ गया है।’’ ऐसी स्थिति देख आखिर दोनों ही नंदी के साथ पैदल चलने लगे। किंतु थोडी ही दूर न जा पाए होंगे कि कुछ लोगों ने कहाः ‘‘देखो, मूर्खों को। इतना तगडा बैल साथ में है और ये पैदल चल रहे हैं।’’ अब तो बडी कठिनाई हो गई। शंकर और पार्वती को कुछ भी करने को शेष न रहा। नंदी को एक वृक्ष के नीचे रोक वे विचार करने लगे। अब तक नंदी चुप था। अब वह हंसा और बोलाः ‘‘एक रास्ता मैं बताऊं? अब आप दोनों मुझे अपने सिरों पर उठा लीजिए।’’ यह सुनते ही शंकर और पार्वती को होश आया और दोनों फिर नंदी पर सवार हो गए। लोग फिर भी कुछ न कुछ कहते निकलते रहे। असल में लोग बिना कुछ कहे निकल भी कैसे सकते हैं? अब शंकर और पार्वती चांदनी की सैर का आनंद लूट रहे थे और भूल गए थे कि मार्ग पर कोई भी निकल रहा है।
 
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| 8R || [[image:man0759.jpg|200px]] || [[image:man0759-2.jpg|200px]] || Letter 12 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 50
| 8R || [[image:man0759.jpg|200px]] || [[image:man0759-2.jpg|200px]] || Second part of Letter 13 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 41
 
:का आवास भी आमने-सामने ही था। दोनों जीए भी साथ ही साथ और मरे भी साथ ही साथ। एक और गहरा आश्चर्य भी था। वह तो योगी और वेश्या को छोड और किसी को ज्ञात नहीं है। जैसे ही उनकी मृत्यु हुई, वैसे ही उन्हें ले जाने के लिए ऊपर से दूत आए, लेकिन वे दूत वेश्या को लेकर स्वर्ग की ओर चले और योगी को लेकर नरक की ओर। योगी ने कहाः ‘‘मित्रो, निश्चय ही कुछ भूल हो गई है! वेश्या को स्वर्ग की ओर लिए जाते हो और मुझे नरक की ओर? यह कैसा अन्याय है--यह कैसा अंधेर है? ’’ उन दूतों ने कहाः ‘‘नहीं, महानुभाव, न भूल है, न अन्याय, न अंधेर। कृपा कर थोडा नीचे देखें।’’ योगी ने नीचे धरती की ओर देखा। वहां उसके शरीर को फूलों से सजाया गया था और उसका विशाल जुलूस निकाला जा रहा था। हजारों-हजारों लोग रामधुन गाते हुए, उसके शरीर को श्मशान की ओर ले जा रहे थे। वहां उसके लिए चंदन की चिता तैयार थी, और दूसरी ओर सडक के किनारे वेश्या की लाश पडी थी। उसे कोई उठानेवाला भी नहीं था, इसलिए गीध और कुत्ते उसे फाड-फाड कर खा रहे थे।
:यह देख वह योगी बोलाः ‘‘धरती के लोग ही कहीं ज्यादा न्याय कर रहे हैं!’’
:उन दूतों ने उत्तर दियाः ‘‘क्योंकि धरती के लोग केवल वही जानते हैं, जो बाहर था। शरीर से ज्यादा गहरी उनकी पहुंच नहीं। किंतु असली सवाल तो शरीर का नहीं, मन का है। शरीर से तुम संन्यासी थे, किंतु मन में तुम्हारे क्या था? क्या सदा ही तुम्हारा मन वेश्या में अनुरक्त नहीं था? क्या सदा ही तुम्हारे मन में यह वासना नहीं जागती रही कि उधर वेश्या के घर में कैसा सुंदर संगीत और नृत्य चल रहा है, वहां बडा आनंद आता होगा और मेरा जीवन कैसा नीरस है। और उधर वह वेश्या थी। वह निरंतर ही सोचती थी कि योगी का जीवन कैसा आनंदपूर्ण है! रात्रि को जब तुम भजन गाते थे तो वह भाव-विभोर हो रोती थी। इधर संन्यासी के अहंकार से तुम भरते जा रहे थे, उधर पाप की पीडा से वह विनम्र होती जाती थी। तुम अपने तथाकथित ज्ञान के कारण कठोर होते गए और वह अपने अज्ञान-बोध के कारण सरल। अंततः तुम्हारा अहंकारग्रस्त व्यक्तित्व बचा और उसका अहंशून्य। मृत्यु के क्षण में तुम्हारे चित्त में अहंकार था, वासना थी। उसके चित्त में न अहंकार था, न वासना। उसका चित्त तो परमात्मा के प्रकाश, प्रेम और प्रार्थना से परिपूर्ण था।’’
:जीवन का सत्य बाह्य आवरण में नहीं है। फिर बाह्य के परिवर्तन से क्या होगा?
:सत्य है बहुत आंतरिक-आत्यंतिक रूप से आंतरिक। उसे जानने और पाने के लिए व्यक्तित्व की परिधि पर नहीं, केंद्र पर श्रम करना होता है। उस केंद्र को खोजो। खोजने से वह निश्चय ही मिलता है, क्योंकि वह स्वयं में ही तो छिपा है।
:धर्म परिधि का परिवर्तन नहीं, अंतस की क्रांति है।
:धर्म परिधि पर अभिनय नहीं, केंद्र पर श्रम है।
:धर्म श्रम है, स्वयं पर। उस श्रम से ही स्व मिटता और सत्य उपलब्ध होता है।
 
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| 8V || [[image:man0760.jpg|200px]] || [[image:man0760-2.jpg|200px]] ||  
| 8V || [[image:man0760.jpg|200px]] || [[image:man0760-2.jpg|200px]] || Second part of Letter 12 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 50
 
:जीवन में यदि कहीं पहुंचना हो तो राह में मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति की बात पर ध्यान देना आत्मघातक है।
:वस्तुतः जिस व्यक्ति की सलाह का कोई मूल्य है, वह कभी बिना मांगे सलाह देता ही नहीं है।
:और यह भी स्मरण रहे कि जो स्वयं के विवेक से नहीं चलता है, उसकी गति हवा के झोंकों में उडते सूखे पत्तों की भांति हो जाती है।
 


:Letter 12 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 50
First part of Letter 13 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 41
:Letter 13 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 41
 
:मैं मन के आमूल परिवर्तन का आग्रह करता हूं। शरीर के तल पर किसी भी परिवर्तन का कोई गहरा मूल्य नहीं। मात्र आचरण की बदलाहट अपर्याप्त है, क्योंकि अंतस की क्रांति के अभाव में वह आत्मवंचना से ज्यादा नहीं है।
:लेकिन जिनके चित्त में भी स्वयं को परिवर्तित करने का विचार उठता है, वे शीघ्र ही हृदय को बिना बदले ही वस्त्रों को बदलने में संलग्न हो जाते हैं। स्वयं को धोखा देने की यह अंतिम विधि है। इससे सावधान होना बहुत आवश्यक है। अन्यथा संन्यास भी बाह्य घटना मात्र रह जाता है। संसार तो बाह्य है, लेकिन संन्यास भी बाह्य ही हो तो जीवन बहुत ही अंधकारपूर्ण पथों पर भटक जाता है।
:वासना का पथ तो अज्ञान है ही। किंतु यदि त्याग भी बाह्य हो, तो वह और भी अज्ञानपूर्ण मार्गों पर ले जाता है।
:वस्तुतः चेतना का स्वयं से बाह्य होना ही अज्ञान और अंधकार है। फिर इससे कोई भेद नहीं पडता है, वह बाह्यता संसार को लेकर है, या संन्यास को।
:चित्त बाह्यता से घिरा हो, तो भोग भी उसे बाहर रखता है और त्याग भी।
:और चित्त बाह्य से मुक्त हो, तो सहज ही स्वयं में आ जाता है।
:बाह्य की सार्थकता का आभास संसार है।
:और बाह्य की व्यर्थता का बोध संन्यास।
:एक कथा मैंने सुनी हैः
:एक नगर में एक ही दिन दो मृत्यु हो गई थीं। बडी अजीब घटना हुई थी। एक योगी और एक वेश्या--दोनों एक ही दिन एक ही घडी में संसार से चल दिए थे। दोनों


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| 9R || [[image:man0761.jpg|200px]] || [[image:man0761-2.jpg|200px]] || Letter 14 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 42
| 9R || [[image:man0761.jpg|200px]] || [[image:man0761-2.jpg|200px]] || Letter 14 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 42
 
:अहंकार हृदय को पाषाण बना देता है। जीवन में जो भी सत्य है, शिव है, सुंदर है, वह उस सबकी मृत्यु है। इसलिए अहंकार के अतिरिक्त परमात्मा के मार्ग में कोई बाधा नहीं। क्योंकि पाषाण-हृदय प्रेम को कैसे जानेगा? और जहां प्रेम नहीं, वहां परमात्मा कहां? प्रेम के लिए तो सरल और विनम्र हृदय चाहिए--सरल और संवेदनशील। और अहंकार जितना प्रगाढ़ होता है, उतना ही हृदय अपनी सरलता और संवेदनशीलता खो देता है।
:‘‘धर्म क्या है? ’’ जब कोई मुझ से पूछता है तो मैं कहता हूंः ‘‘हृदय की सरलता--हृदय की संवेदनशीलता।’’
:लेकिन, धर्म के नाम से जो कुछ प्रचलित है, वह तो अहंकार के ही बहुुत से सूक्ष्म और जटिल रूपों की अभिव्यक्ति है।
:अहंकार समस्त हिंसा का मूल है।
:‘मैं हूं’--यह भाव ही हिंसा है। फिर ‘मैं कुछ हूं’--यह तो अतिहिंसा है।
:सत्य को, सौंदर्य को, हिंसक चित्त नहीं पा सकता है। क्योंकि हिंसा स्वयं को कठोर कर देती है। कठोरता का अर्थ है, स्वयं के द्वार का बंद हो जाना। और जो स्वयं में बंद है, वह सर्व से कैसे संबंधित हो सकता है?
:एक फकीर था, हसन। बहुत दिन का भूखा, वह एक गांव के बाहर जाकर ठहरा था। उसके कुछ साथी भी साथ थे। वे भी लंबी यात्रा से थके-मांदे और भूखे-प्यासे थे। वे जाकर जैसे ही उस खंडहर में ठहरे थे कि एक अपरिचित व्यक्ति बहुत सा भोजन और फल लेकर आया और बोलाः ‘‘यह क्षुद्र सी भेंट उनके लिए है जो तपस्वी हैं और संन्यासी हैं।’’ उस व्यक्ति के चले जाने के बाद हसन ने अपने साथियों से कहाः ‘‘मित्रो, मुझे आज की रात्रि भी भूखा ही सोना होगा, क्योंकि मैं कहां हूं तपस्वी, कहां हूं संन्यासी? असल में मैं ही कहां हूं? ’’
:‘मैं नहीं हूं’--इसे जो जान लेते हैं, वे परमात्मा को जान लेते हैं।
:‘मैं नहीं हूं’--इसे जो पा लेते हैं, वे परमात्मा को पा लेते हैं।
 
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| 9V || [[image:man0762.jpg|200px]] || [[image:man0762-2.jpg|200px]] || Letter 15 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 19
| 9V || [[image:man0762.jpg|200px]] || [[image:man0762-2.jpg|200px]] || Letter 15 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 19
 
:एक दिन स्वर्ग के द्वार पर बडी भीड थी। कुछ पंडित चिल्ला रहे थेः ‘‘जल्दी द्वार खोलो।’’ लेकिन द्वारपालों ने उनसे कहाः ‘‘थोडा ठहरिए। हम आपके संबंध में पता लगा लें कि जो ज्ञान आपने पाया, वह शास्त्रों से पाया था या स्वयं से। क्योंकि शास्त्रों से पाए हुए ज्ञान का यहां कोई मूल्य नहीं है।’’
:इतने में ही एक संन्यासी भीड के आगे आया और बोलाः ‘‘द्वार खोलो। मैं स्वर्ग में प्रवेश पाना चाहता हूं। मैंने बहुत उपवास किए और शारीरिक कष्ट सहे। मेरे समय में मुझसे बडा और कौन तपस्वी था? ’’
:द्वारपालों ने कहाः ‘‘स्वामी जी, थोडा ठहरिए। हम पता लगा लें कि तपश्चर्या आपने क्यों की थी? क्योंकि जहां कुछ भी पाने की आकांक्षा है, वहां न त्याग है न तप है।’’
:और तभी जनता के कुछ सेवक आ गए। वे भी स्वर्ग में प्रवेश चाहते थे।
:द्वारपालों ने उनसे कहाः ‘‘आप भी बडी भूल में पड गए हैं। जो सेवा पुरस्कार मांगती है, वह सेवा ही नहीं है। फिर भी हम आपके संबंध में पता लगा लेते हैं।’’
:और तभी द्वारपालों की दृष्टि सबसे पीछे अंधेरे में खडे एक व्यक्ति पर गई। उन्होंने भीड से उस व्यक्ति को आगे आने के लिए मार्ग देने को कहा। उस व्यक्ति की आंखों से आंसू गिर रहे थे। उसने कहाः ‘‘निश्चय ही भूल से मुझे यहां ले आया गया है। कहां मैं और कहां स्वर्ग? मैं हूं निपट अज्ञानी। शास्त्रों को बिल्कुल नहीं जानता हूं। संन्यास से बिल्कुल अपरिचित हूं, क्योंकि मेरा कुछ था ही नहीं तो मैं त्याग क्या करता? और सेवा? सेवा मैंने कभी नहीं की। उतनी मेरी सामथ्र्य ही कहां? प्रेम जरूर मेरे हृदय से बहता था। लेकिन प्रेम तो स्वर्ग-प्रवेश की कोई योग्यता नहीं है। फिर मैं स्वयं भी स्वर्ग में प्रवेश नहीं करना चाहता हूं। कृपा करें और बतावें कि नरक का द्वार कहां है। शायद, वहीं मेरा स्थान भी है और वहीं मेरी आवश्यकता भी है।’’ उसके यह कहते ही द्वारपालों ने स्वर्ग के द्वार खोल दिए और कहाः ‘‘मत्र्यों में आप धन्य हैं। आपने अमृतत्व की उपलब्धि कर ली। स्वर्ग के द्वार आपके लिए सदा ही खुले हैं। आपका स्वागत है।’’
:क्या जीवन में अंतिम होना ही परमात्मा की प्रार्थना नहीं है?
:और क्या जीवन में अंतिम होना ही मोक्ष नहीं है?
 
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| 10 || [[image:man0763.jpg|200px]] || [[image:man0763-2.jpg|200px]] || Letter 15 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', page 19
| 10 || [[image:man0763.jpg|200px]] || [[image:man0763-2.jpg|200px]] || Second part of Letter 10 : ''[[Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये)]]'', chapter 28
 
:वासना की जंजीरों से सुदृढ़ जंजीरें न तो अब तक बन सकी हैं और न आगे ही बन सकती हैं। असल में उतना मजबूत फौलाद कोई और होता ही नहीं। इन अदृश्य जंजीरों से बंधा व्यक्ति सम्राट कैसे हो सकता है?
:एक सम्राट थाः प्रसिया का फ्रेड्रिक महान। एक संध्या राजधानी के बाहर एक बूढे़ आदमी से उसे धक्का लग गया। संकरी पगडंडी थी और सांझ का अंधेरा भी घिर रहा था। फ्रेड्रिक ने क्रोध से उस बूढे़ से पूछाः ‘‘आप कौन हैं? ’’ उस वृद्ध ने कहाः ‘‘एक सम्राट।’’ फ्रेड्रिक ने साश्चर्य कहाः ‘‘सम्राट? ’’ और फिर मजाक में पूछाः ‘‘किस देश पर आपका राज्य है? ’’ उस बूढे़ ने कहाः ‘‘स्वयं पर।’’
:निश्चय ही जिनका स्वयं पर राज्य है, वे ही सम्राट हैं।
 
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Revision as of 14:53, 29 January 2019

Truth, Goodness, Beauty

Brahma, Vishnu, Mahesh: The Creator, the Preserver and the Destroyer

year
1966
notes
10 sheets plus 9 written on reverse.
Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".
Sheet 3R (Letter 4) is unpublished and all the rest published in Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapters: 10-11, 1, 26-27, 16-18, 28, 40, 50, 41-42 and 19.
see also
Osho's Manuscripts


page no original photo enhanced photo Hindi transcript
1R Letter 1 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 10
प्रेम शक्ति है, और जो प्रेम से जीतता है, वही वस्तुतः जीतता है।
प्रेम जहां है, वहां परमात्मा है, क्योंकि प्रेम परमात्मा की उपस्थिति का प्रकाश है।
स्मरण रहे कि जब भी तुम्हारा मन क्रोध से भरता है, घृणा से भरता है, तभी तुम अशक्त हो जाते हो और परमात्मा से तुम्हारे संबंध क्षीण हो जाते हैं।
इसीलिए ही तो क्रोध में, घृणा में, द्वेष में दुख और संताप पैदा होते हैं, संताप की मनोदशा सर्व की सत्ता से स्वयं की जडों के पृथक होने से पैदा होती है।
प्रेम आनंद से भर देता है, शांति संगीत से और करुणा ऐसी सुगंधियों से जो इस पृथ्वी की नहीं हैं।
क्यों?
क्योंकि, उनमें होकर तुम सर्वात्मा के निकट हो जाते हो, क्योंकि उनमें होकर तुम परमात्मा के हृदय में स्थान पा जाते हो, क्योंकि उनमें होकर तुम तुम नहीं रहते, वरन परमात्मा ही तुमसे प्रकट होने लगता है।
इसीलिए मैं कहता हूं कि जीवन में जो अखंड और अटूट प्रेम को पा लेता है, वह सब पा लेता है।
एक घटना मुझे स्मरण आती है। मोहम्मद अपने शिष्य अली के साथ किसी मार्ग से गुजर रहे थे। अली के एक शत्रु ने आकर उसे रोक लिया और उसका अपमान करने लगा। अली ने शांति से उसके दुर्वचन सुने। उसकी आंखों में प्रेम और प्रार्थना मालूम होती थी। वह शत्रु की विषाक्त बातों को ऐसे सुनता रहा जैसे वह उसकी प्रशंसा करता हो। उसका धैर्य अदभुत था, लेकिन अंततः उसने भी धैर्य खो दिया और वह शत्रु के तल पर नीचे उतर आया और ईंट का जवाब पत्थर से देने लगा। धीरे-धीरे उसकी आंखें क्रोध से भर गईं और उसके हृदय में घृणा और प्रतिशोध के बादल गरजने लगे। उसका हाथ तलवार पर जा चुका था। मोहम्मद अब तक शांति से बैठे सब देख रहे थे। अचानक वे उठे और
1V Letter 1 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 10
अली तथा उसके शत्रु को वहीं छोड कर एक ओर चले गए। इससे अली को बहुत आश्चर्य हुआ और मोहम्मद के प्रति मन में शिकायत भी आई। बाद में जब मोहम्मद मिले तो उसने उनसे कहाः ‘‘आपका यह कैसा व्यवहार? शत्रु मुझे रोके हुए था और आप मुझे बीच में छोड कर चले आए! क्या यह मृत्यु के मुंह में ही छोड आने जैसा नहीं है? ’’ मोहम्मद ने कहाः ‘‘प्यारे! वह मनुष्य निश्चित ही बहुत हिंसक और क्रूर था और उसके भी बहुत क्रोध से भरे हुए थे, लेकिन मैं तुझे शांत और प्रेम से भरा देख कर बहुत आनंदित था। उस समय मैंने देखा कि परमात्मा के दस दूत तेरी रक्षा कर रहे थे और उनके शुभाशीषों की तेरे ऊपर वर्षा हो रही थी। प्रेम और क्षमा के कारण तू सुरक्षित था। लेकिन, जैसे ही तेरा हृदय करुणा को छोड कर कठोर हुआ और तेरी आंखें प्रतिशोध की लपटें प्रकट करने लगीं, वैसे ही मैंने देखा कि वे देवदूत तुझे छोड कर चले गए हैं। उस समय उचित ही था कि मैं भी वहां से हट जाऊं। परमात्मा ने ही तेरा साथ छोड दिया था।’’


Letter 2 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 11

मैं प्रत्येक से पूछता हूं कि जीवन में तुम क्या खोज रहे हो? जीवन की खोज में ही जीवन का अर्थ और मूल्य छिपा है।
कोई यदि कंकड-पत्थर ही खोजता हो तो उसके जीवन का मूल्य उसकी खोज से ज्यादा कैसे होगा?
किंतु, अधिक व्यक्ति क्षुद्र की खोज में ही क्षुद्र हो जाते हैं और अंततः पाते हैं कि जीवन की संपदा उन्होंने ऐसी संपदा को खोजने में गंवाई है, जो संपदा ही नहीं थी।
यह उचित है कि किसी भी यात्रा के पहले हम ठीक से जान लें कि हम कहां पहुंचना चाहते हैं और क्यों पहुंचना चाहते हैं, और यह भी कि क्या गंतव्य यात्रा की कठिनाइयों और श्रम को झेलने योग्य भी है?
जो विचार कर नहीं चलता, वह अक्सर पाता है कि या तो वह कहीं पहुंचता ही नहीं, या फिर कहीं पहंुच भी जाता है तो जहां पहुंच जाता है, उस स्थान को पहुंचने योग्य ही नहीं पाता।
मैं चाहता हूं कि ऐसी भूल तुम्हारे जीवन में न हो, क्योंकि ऐसी भूल सारे जीवन को ही नष्ट कर देती है।
जीवन है छोटा। शक्ति है सीमित। समय है अल्प। इसीलिए, जो विचार से, सावधानी से और सजगता से चलते हैं, वे ही कहीं पहुंच पाते हैं।
एक फकीर था। नाम था उसका शिब्ली। किसी यात्रा पर था। मार्ग में एक युवक को कहीं तेजी से जाते हुए देखा तो उसने पूछाः ‘‘मित्र, कहां भागे जा रहे हो? ’’ उस युवक ने
2R Letter 2 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 11
बिना ठहरे ही कहाः ‘‘अपने घर।’’ शिब्ली ने इस पर एक बडा अजीब सा सवाल किया। पूछाः ‘‘कौन सा घर? ’’
मैं भी तुमसे यही पूछता हूं। तुम भागे जा रहे हो। सभी भागे जा रहे हैं। मैं पूछता हूंः ‘‘कहां भागे जा रहे हो? ’’
यह सारी दौड कहीं अंधी तो नहीं है?
कहीं ऐसा तो नहीं है कि सब भाग रहे हैं, इसलिए तुम भी भाग रहे हो बिना यह जाने कि कहां जाना है?
काश, इसके उत्तर में तुम भी वही कह सको, जो उस युवक ने शिब्ली को कहा था, तो मेरे प्राण आनंद से नाच उठेंगे!
उस युवक ने कहा थाः ‘‘एक ही तो घर है। परमात्मा का घर। उसकी ही खोज में हूं।’’
निश्चय ही शेष सब स्वप्न है--शेष किसी भी घर की खोज स्वप्न है।
घर तो एक ही है--वास्तविक घर तो एक ही हैः परमात्मा का घर। जो उसे खोजना चाहता है, उसे स्वयं को ही खोजना पडता है, क्योंकि स्वयं में ही वह छिपा हुआ है।
क्या परमात्मा के अतिरिक्त कोई और घर भी है?
और क्या स्वयं के अतिरिक्त परमात्मा को कहीं और भी पाया जा सकता है?
मैं शिब्ली की जगह होता तो उस भागते युवक से एक सवाल और पूछता। पता नहीं वह क्या उत्तर देता, लेकिन सवाल तो मैं तुम्हें बता ही दूं।
मैं उससे कहताः ‘‘मित्र, परमात्मा को पाना है तो भाग क्यों रहे हो? कहां भागे जा रहे हो? जो यहीं है, उसे भाग कर कैसे पाओगे? जो इसी क्षण है, अभी है, उसे कभी भविष्य में पाने की कामना क्या भ्रांति नहीं? और जो भीतर है, उसे भाग कर खोया ही जा सकता है। उसे पाने के लिए क्या उचित नहीं है कि ठहरो और रुको और स्वयं में देखो? ’’


Letter 3 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 1

एक कथा मैंने सुनी थी। हजारों वर्ष पूर्व परमात्मा के मंदिरों का एक नगर सागर में डूब गया था। उस सागर में डूबे उन मंदिरों की घंटियां आज भी बजती रहती हैं। शायद पानी के
2V Letter 3 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 1
धक्के उन्हें बजा देते होंगे, या यहां-वहां भागती मछलियों से टकरा कर वे बजती रहती होंगी। जो भी हो, घंटियां आज भी बजती हैं। और आज भी उनके मधुर संगीत को उस सागर के तट पर जाकर सुना जा सकता है।
मैं भी उस संगीत को सुनना चाहता था। मैं उस सागर की खोज में गया। बहुत वर्षों की भटकन के बाद अंततः उस सागर-तट पर पहुंच ही गया। किंतु यह क्या, वहां तो सागर का तुमुलनाद गूंज रहा था--लहरों के थपेडे चट्टानों से टकरा कर उस एकांत में अनंत गुना हो प्रतिध्वनित हो रहे थे। न तो वहां कोई संगीत था, न किन्हीं मंदिरों की बजती कोई घंटियां थीं। मैं तट पर कान लगा कर सुनता था, लेकिन वहां तो तट पर टूटती लहरों की ध्वनि के अतिरिक्त और कुछ भी न था।
फिर भी मैं रुका रहा। वस्तुतः लौटने का मार्ग ही मैं भूल गया था। अब तो वह अपरिचित निर्जन सागर-तट ही मेरी समाधि बनने को था।
फिर धीरे-धीरे सागर में डूबे मंदिरों की घंटियां सुनने का ख्याल भी मुझे भूल गया। मैं उस सागर के किनारे ही बस गया था।
फिर एक रात्रि अचानक मैंने पाया कि डूबे मंदिरों की घंटियां बज रही हैं और उनका मधुुर संगीत मेरे प्राणों को आंदोलित कर रहा है।
मैं उस संगीत को सुनकर जाग गया और फिर तब से सो नहीं सका। अब तो भीतर कोई निरंतर ही जागा हुआ है। निद्रा सदा को ही चली गई है।
और जीवन आलोक से भर गया है, क्योंकि जहां निद्रा नहीं है, वहां अंधकार नहीं है।
और मैं आनंद में हूं...नहीं, नहीं...मैं आनंद ही हो गया हूं, क्योंकि जहां परमात्मा के मंदिर का संगीत है, वहां दुख कहां?
क्या तुम भी उस सागर के किनारे चलना चाहते हो? क्या तुम्हें भी परमात्मा के डूबे मंदिर का संगीत सुनना है?
तो चलो। स्वयं के भीतर चलो। स्वयं का हृदय ही वह सागर है और उसकी गहराइयों में ही परमात्मा के डूबे हुए मंदिरों का नगर है।
लेकिन उसके मंदिरों का संगीत सुनने में केवल वे ही समर्थ होते हैं, जो सब भांति शांत और शून्य हों।
विचार और वासना का कोलाहल जहां है, वहां उसका संगीत कैसे सुन पडेगा? उसे पाने की वासना तक भी उसे पाने में बाधा बन जाती है।
3R Letter 4
एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि क्या आपको परमात्मा से कोई शिकायत नहीं है?
मैं क्या कहता, थोड़ी देर तक तो चुप ही रह गया; क्योंकि जब तक परमात्मा का पता न हो तभी तक शिकायत हो सकती है। और जब तक शिकायत है तब तक उसका पता नहीं हो सकता। परमात्मा की अनुभूति तो केवल उस चित्त में ही हो सकती है जो कि सब आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से मुक्त हो गया है। और जहां आकांक्षा नहीं, अपेक्षा नहीं, वहां शिकायत कैसी? जो है, जो हो रहा है, उसके सहज स्वीकार से ही उस चित्त भूमि का निर्माण होता है, जहां कि परमात्मा के बीज अंकुरित हो सकें।
एक हिब्रू कथा है कभी एक फकीर हुआ, अजीफा। वह परमात्मा की खोज में भटकता था। प्रार्थनाएं करते-करते वह थक गया था और उपवास करते-करते उसके अंतिम दिन निकट आ गए थे। लेकिन परमात्मा दूर था, सो दूर ही रहा। फिर भी उसकी कोई शिकायत न थी। और शत्रु उसके पीछे पड़े थे। बुढ़ापे में भी उसे एक गांव से दूसरे गांव भागना पड़ रहा था। सब ने उसका साथ छोड़ दिया था। उसके पास एक कंदील थी जिसके प्रकाश में वह धर्मशास्त्र पढ़ लेता था। और था एक मुर्गा जो उसे भोर होते ही जगा देता था। और था एक गधा जिस पर वह एक गांव से दूसरे गांव यात्रा करता रहता था। यही थे उसके साथी। और हृदय में परमात्मा के लिए प्रार्थना थी और धन्यवाद था।
एक अंधेरी अमावस की रात्रि में बहुत थका-मांदा वह एक गांव में गया। किंतु उस गांव के लोगों ने उसे शरण नहीं दी। उसने उन्हें धन्यवाद दिया और परमात्मा को भी और गांव के बाहर जाकर एक सूखी बावली में ठहर गया। उसने अपनी कंदील जलाई लेकिन हवा के तेज झोंकों ने उसे बुझा दिया। उसने परमात्मा को धन्यवाद दिया और विश्राम करने को लेट गया। लेकिन तभी एक भेड़िए ने उसके मुर्गे को मार डाला और एक सिंह उसके गधे को खा गया। उसने पुनः भगवान को धन्यवाद दिया और सोने की कोशिश की। और तभी उसी रात्रि, जबकि वह बिल्कुल असहाय था, भूखा था, प्यासा था, थका-मांदा था और उससे सब कुछ छीन लिया गया था; उसका धन्यवाद देने वाला हृदय परमात्मा के दर्शन को उपलब्ध हुआ। उसने सत्य को जाना। क्योंकि वह समता को और स्वीकार को उपलब्ध हो गया था।
3V Letter 5 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 26
सुबह से सांझ तक सैकडों लोगों को मैं एक दूसरे की निंदा में संलग्न देखता हूं। हम सब कितना शीघ्र दूसरों के संबंध में निर्णय कर लेते हैं, जब कि किसी के भी संबंध में निर्णय करने से कठिन और कोई बात नहीं है। शायद परमात्मा के अतिरिक्त किसी के संबंध में निर्णय करने का कोई अधिकारी नहीं, क्योंकि एक व्यक्ति को--एक छोटे से, साधारण से मनुष्य को भी जानने के लिए जिस धैर्य की अपेक्षा है, वह परमात्मा के सिवाय और किसमें है?
क्या हम एक दूसरे को जानते हैं? वे भी जो एक दूसरे के बहुत निकट हैं, क्या वे भी एक दूसरे को जानते हैं?
मित्र, क्या मित्र भी एक दूसरे के लिए अपरिचित और अजनबी ही नहीं बने रहते हैं?
लेकिन, हम तो अपरिचितों को भी जांच लेते हैं और निर्णय ले लेते हैं और वह भी कितनी शीघ्रता से!
ऐसी शीघ्रता अत्यंत कुरूप होती है। लेकिन जो व्यक्ति अन्यों के संबंध में विचार करता रहता है, वह अपने संबंध में विचार करने की बात भूल ही जाता है। और ऐसी शीघ्रता निपट अज्ञान भी है, क्योंकि ज्ञान के साथ होता है धैर्य--अनंत धैर्य।
जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है और जो जल्दी अविचारपूर्वक निर्णय लेने के आदी हो जाते हैं, वे उसे जानने से वंचित ही रह जाते हैं।
एक घटना मैंने सुनी है। पहले महायुद्ध के समय की बात है। एक कमांडर ने अपने सैनिकों को कहाः ‘‘सैनिको, बहुत खतरनाक कार्य के लिए पांच सैनिक चाहिए। उस कार्य में जीवन के बचने की संभावना नहीं है। इसीलिए जो स्वेच्छा से जोखिम उठाने को तैयार हों, वे अपनी पंक्ति से दो कदम आगे आवें।’’ वह अपनी बात पूरी कह भी नहीं पाया था कि एक घुडसवार ने आकर उसका ध्यान बंटा लिया। वह कोई अत्यंत आवश्यक संदेश उसे देने आया था। संदेश को लेने और पढ़ने के बाद उसने आंखें अपनी टुकडी के सैनिकों की ओर उठाईं। उनकी पंक्तियों को अखंड देख, वह क्रोध से भर उठा। उसकी आंखों से चिनगारियां छूटने लगीं और वह चिल्लायाः ‘‘कायरो, नामर्दो, क्या एक भी मर्द तुम्हारे बीच में नहीं है? ’’ उसने और भी गालियां उन्हें दीं। दंड की धमकियां भी दीं, और तभी उसे ज्ञात हुआ कि एक नहीं सारे सैनिक ही दो कदम आगे बढ़ गए थे।
4R Letter 6 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 27
मैं एक दिन राह के किनारे बैठा था। वृक्षों की घनी छाया में बैठा-बैठा राह चलते लोगों को देखता रहा। उन्हें देख कर बहुत से विचार मेरे मन में आए। वे कहीं भागे चले जा रहे थे। बच्चे, जवान, बू.ढे, स्त्री, पुरुष--सभी भागे जाते थे। उनकी आंखें कुछ खोजती प्रतीत होती थीं और उनके पैर किसी बडी यात्रा में संलग्न थे। लेकिन वे कहां भागे जा रहे थे? क्या था उनका गंतव्य? और क्या अंत में वे पावेंगे कि कहीं पहुंचे?
यही विचार तुम्हें देख कर भी मेरे मन में उठता है।
और उस विचार के साथ ही साथ मैं एक गहरी पीडा से भर जाता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम कहीं भी नहीं पहुंचोगे। नहीं पहुंचोगे इसलिए, कि तुम्हारा मन और तुम्हारे चरण परमात्मा के विरोध में चल रहे हैं।
जीवन में कहीं पहुंचने का राज हैः परमात्मा की दिशा में चलना। उसके अतिरिक्त कोई भी दिशा, कोई भी मार्ग कहीं नहीं पहुंचाता। परमात्मा की दिशा में बहो। उसके विपरीत तैर कर मनुष्य केवल स्वयं को तोडता और नष्ट करता है।
मनुष्य का भय क्या है? उसकी चिंता क्या है? उसका दुख क्या है? उसकी मृत्यु क्या है?
मैंने देखाः परमात्मा के विरोध में तैरने की अहं चेष्टा से ही ये सब रुग्णताएं पैदा होती हैं।
अहंकार दुख है। अहंकार रोग है। क्योंकि अहंकार परमात्मा के विरोध की दिशा है। और परमात्मा का विरोध स्वयं का विरोध है।
मैंने एक घटना सुनी है। एक छोटे से वायुयान का चालक 150 मील प्रतिघंटा की चाल से उडा जा रहा था। अचानक उसने पाया कि वह एक भयंकर आंधी की धारा में पड गया है। अंधड बहुत तूफानी था। संभवतः वह भी 150 मील प्रतिघंटा की गति से ही यान की विरोधी दिशा में भागा जा रहा था। इस प्रचंड आंधी में फंसे चालक के प्राण संकट में थे और उसके प्राण का बचना संभव नहीं दीखता था। आश्चर्य तो यह था कि यान के सभी यंत्र यथावत कार्य कर रहे थे और इंजिन शोर कर रहे थे, लेकिन यान एक इंच भी आगे नहीं बढ़ रहा था। बाद में उस चालक ने कहाः ‘‘कितना विचित्र अनुभव था वह! 150 मील प्रतिघंटा की गति से भागते हुए एक इंच भी आगे न बढ़ पाना! कितनी गति से मैं
4V Letter 6 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 27
जा रहा था और फिर भी कहीं नहीं जा रहा था!’’
क्या ऐसा ही जीवन में भी नहीं होता है? नहीं हो रहा है?
परमात्मा की दिशा में जो नहीं चल रहे हैं, वे भी पाएंगे कि चल तो बहुत रहे हैं, लेकिन पहुंच कहीं भी नहीं रहे हैं।
परमात्मा यानी स्वयं की आत्यंतिक सत्ता। परमात्मा यानी स्वरूप। और, क्या यह ठीक ही नहीं है कि स्वयं के विरोध में चल कर कोई कहीं कैसे पहुंच सकता है?
जीवन का आनंद उनका है, जो स्वयं में जीते और स्वयं को जानते और स्वयं को उपलब्ध करते हैं।


Letter 7 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 16

एक बुढ़िया बहुत बीमार थी। घर में वह अकेली थी इसलिए बहुत कठिनाई में पडी थी। एक दिन सुबह-सुबह ही दो अत्यंत भद्र और धार्मिक दीखनेवाली महिलाएं उसके पास आईं। उनके माथों पर चंदन था और हाथों में रुद्राक्ष की मालाएं। उन्होंने आकर उस बुढ़िया की सेवा शुरू कर दी और कहाः ‘‘परमात्मा की प्रार्थना से सब ठीक हो जाएगा। विश्वास शक्ति है और विश्वास कभी निष्फल नहीं जाता है।’’ उस सीधी बुढ़िया ने उनकी बातों पर विश्वास कर लिया। वह अकेली थी और अकेला व्यक्ति किसी पर विश्वास करना चाहता है। वह पीडा में थी और पीडा में मनुष्य का मन सहज ही विश्वासी हो जाता है। उन अपरिचित महिलाओं ने दिन भर उसकी सेवा की। सेवा और दिन भर की धार्मिक बातों के कारण बुढ़िया का विश्वास और भी ब.ढ गया। फिर रात्रि में उन महिलाओं के निर्देशानुसार वह एक चादर ओ.ढ कर भूमि पर लेटी, ताकि उसके स्वास्थ्य के लिए परमात्मा से प्रार्थना की जा सके। धूप जलाई गई। सुगंध छिडकी गई। एक महिला उसके सिर पर हाथ रख कर अबूझ मंत्रों का उच्चार करने लगी, और फिर मंत्रों की एक सुरीली ध्वनि दे बुढ़िया को थोडी ही देर में सुला दिया। आधी रात को उसकी नींद खुली। घर में अंधकार था। उसने दीया जलाया तो पाया कि वे अपरिचित महिलाएं न मालूम कब की चली गई हैं। घर के द्वार खुले पडे हैं और उसकी तिजोरी भी टूटी पडी है। विश्वास अवश्य ही फलदायी हुआ था। बुढ़िया को तो नहीं, लेकिन उन धूर्त महिलाओं को। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि विश्वास सदा ही धूर्तों को फलदायी हुआ है।
5R Letter 7 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 16
धर्म विश्वास नहीं, विवेक है। वह अंधापन नहीं, आंखों का उपचार है।
किंतु शोषण के लिए विवेक बाधा है और इसीलिए विश्वास का विष पिलाया जाता है।
विचार विद्रोह है और चूंकि विद्रोही का शोषण असंभव है, इसीलिए विश्वास की शिक्षा दी जाती है।
विचार व्यक्ति को मुक्त करता है, उसे व्यक्ति बनाता है। लेकिन शोषण के लिए तो भेडें चाहिए, भीड का अनुगमन करनेवाले दुर्बल चित्त व्यक्ति चाहिए। इसीलिए विचार की हत्या की जाती है और विश्वास पाला-पोसा जाता है।
मनुष्य असहाय है, इसीलिए असहायावस्था में, अकेलेपन में, विश्वास के लिए तैयार हो जाता है।
जीवन दुख है, इसीलिए दुख से पलायन करने के लिए किसी भी विश्वास और आस्था के प्रति शरणागत हो जाता है।
यह स्थिति शोषकों के लिए, स्वार्थियों के लिए निश्चय ही स्वर्ण-अवसर बन जाती है। धर्म धूर्तों के हाथों में है, इसीलिए ही तो जगत में अधर्म है। धर्म की जब तक विश्वास से मुक्ति नहीं होगी, तब तक वास्तविक धर्म का जन्म नहीं हो सकता है।
धर्म जब विवेक की अग्नि से संयुक्त होता है, तब उससे स्वतंत्रता, सत्य और शक्ति का उदभव होता है। धर्म शक्ति है, क्योंकि विचार शक्ति है। धर्म प्रकाश है, क्योंकि प्रज्ञा प्रकाश है। धर्म मुक्ति है, क्योंकि विवेक मुक्ति है।

Letter 8 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 17

धर्म, धर्म, धर्म। धर्म का कितना विचार चलता है, लेकिन परिणाम क्या है?
मैं जिसे सुनता हूं, वही शास्त्र- उद्धृत करता है, लेकिन परिणाम क्या है?
मनुष्य निरंतर दुख और पीडा में डूबता जा रहा है, और हम हैं कि अपने सीखे हुए सिद्धांत दुहराए जा रहे हैं।
जीवन प्रतिक्षण पशुता की ओर झुकता जा रहा है और हम हैं कि पत्थरों के पुराने मंदिरों में सदा की भांति सिर झुकाए चले जा रहे हैं।
शब्द--मृत शब्दों में हम इतने घिरे हैं कि शायद सत्य को देखने की क्षमता ही हमने खो दी है।
5V Letter 8 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 17
शास्त्रों से चित्त हमारा इतना आबद्ध है कि स्वयं अनुसंधान में जाने का सवाल ही नहीं उठता है।
और, शायद इसीलिए विचार और आचार के बीच अलंघ्य खाई खुद गई है। और, शायद इसीलिए जो हम कहते हैं कि हम चाहते हैं, ठीक उसके विपरीत ही हम जीए जाते हैं। और, आश्चर्य तो यह है कि यह विरोधाभास हमें दिखाई भी नहीं पडता है!
आंखें होते हुए भी क्या हम अंधे नहीं हो गए हैं?
मैं इस जीवन स्थिति पर सोचता हूं तो दिखाई पडता है कि जो सत्य स्वयं ही उपलब्ध न किए गए हों, वे ऐसी ही उलझन में ले जाते हैं।
सत्य स्वयं से आवे तो मुक्त करता है और स्वयं से न आवे तो और भी गहरे बंधनों में बांध देता है। सिखाए हुए सत्यों से अधिक असत्य और कुछ भी नहीं होता है।
और, ऐसे उधार सत्य, जीवन में अत्यंत पीडादायी स्वविरोध पैदा करते हैं।
एक पहाडी सराय में एक पाला हुआ तोता था। उसके मालिक ने जो उसे सिखाया था, वह उसी को दिन-रात दुहराया करता था। वह कहा करता थाः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’ एक यात्री उस सराय में पहली बार ठहरा था। उस तोते की वेदना भरी वाणी उसके मर्म को छू लेती थी। वह भी अपने देश की स्वतंत्रता के युद्ध में अनेक बार कैद में रह चुका था। और तोता जब उस पहाडी के सन्नाटे को तोड कर कहताः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता,’’ तो उसके हृदय के तार झनझना उठते थे। उसे अपने कैद के दिनों की स्मृति हो आती और स्मरण हो आता कि ऐसे ही तो उसकी अंतरात्मा भी चिल्लाती थीः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’ रात्रि हो गई तो वह यात्री उठा और उसने स्वतंत्रता के आकांक्षी उस तोते को उसकी कैद से मुक्त करना चाहा। यात्री तोते को उसके पिंजडे से बाहर खींचता था, लेकिन तोता निकलने को राजी नहीं होता था। इसके विपरीत अपने सींकचों को पकड कर वह चिल्लाता थाः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’ बडी मुश्किल से वह यात्री तोते को बाहर निकाल पाया। उसे आकाश में उडा कर वह निशिं्चत हो सो गया। लेकिन सुबह उठ कर ही उसने देखा कि तोता अपने पिंजडे में आनंद से बैठा है और चिल्ला रहा हैः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’
6R Letter 9 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 18
एक घटना मैंने सुनी है। युद्ध के दिन थे और अचानक बमबारी शुरू हो गई थी। किसी निर्जन रास्ते पर एक धर्म-पुरोहित कहीं जा रहा था। उसने जल्दी से भाग कर पास में ही बनी लोमडियों की एक गुफा में शरण ली। जैसे ही वह भीतर पहुंचा, उसने देखा कि एक सैनिक अफसर पहले ही से वहां छिपा हुआ है। वह सैनिक अफसर एक कोने में हट गया, ताकि नये आगंतुक के लिए जगह हो सके। तब पास में ही बम गिरने लगे। पुरोहित के हाथ-पैर कंपने लगे। उसने घुटने टेक कर परमात्मा से प्रार्थना शुरू कर दी। वह बहुत जोर-जोर से प्रार्थना कर रहा था। उसने बीच में आंख उठा कर देखा तो पाया कि वह सैनिक अफसर भी उसी की भांति जोर-जोर से प्रार्थना कर रहा है। फिर जब आक्रमण बंद हो गया तो धर्म-पुरोहित ने उस सैनिक अफसर से पूछाः ‘‘बंधु, मैंने देखा कि आप भी प्रार्थना कर रहे थे!’’ वह सैनिक अफसर हंसने लगा और बोलाः ‘‘महानुभाव, लोमडियों की गुफाओं में नास्तिक कहां? ’’
क्या तुम भी तो भय के कारण ही भगवान की खोज नहीं कर रहे हो? क्या तुम्हारी प्रार्थनाएं भी तो भय पर ही आधारित नहीं हैं?
स्मरण रहे कि भय पर प्रतिष्ठित धर्म, सत्य धर्म नहीं है।
मैं भयभीत आस्तिक की बजाय भय-शून्य नास्तिक को ही पसंद करता हूं, क्योंकि भय से भगवान तक पहुंचना असंभव है।
सत्य को पाने की पहली शर्त तो अभय है।
विचार तो करोः क्या भय कभी प्रेम बन सकता है? और यदि भय प्रेम नहीं बनता तो प्रार्थना कैसे बनेगा?
प्रार्थना तो प्रेम की ही पूर्णता है। किंतु, मनुष्य के द्वारा बनाए गए सभी मंदिरों की बुनियादों में भय की ईंटें हैं और भय के द्वारा ग.ढा हुआ भगवान भय की भावनाओं से ही निर्मित है।
इसलिए ही तो हमारा सभी कुछ असत्य हो गया है। क्योंकि जिनका भगवान ही सत्य नहीं है, उनका और क्या सत्य हो सकता है?
और जिनका प्रेम असत्य है, जिनकी प्रार्थना असत्य है, यदि उनके प्राण ही असत्य हो गए हों तो आश्चर्य कैसा?
6V Letter 9 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 18
प्रेम से--केवल प्रेम से--ही प्रार्थना सत्य होती है।
और ज्ञान से--केवल ज्ञान से--ही उसे जाना जाता है जो कि वस्तुतः है। मैं कहता हूं प्रेम करो, क्योंकि प्र्रेम की प्रगा.ढता ही जीवन को प्रार्थना में परिणत कर देती है। मैं कहता हूं स्वयं की प्रज्ञा को जगाओ, क्योंकि उसका जागरण ही परमात्मा का दर्शन है।
प्रेम और प्रज्ञा--जो इन दो बीज-मंत्रों को समझ लेता है, वह सब समझ जाता है, जो समझना चाहिए और जो समझने योग्य है और जो समझा जा सकता है।
परमात्मा का मंदिर कहां है? जब कोई मुझसे पूछता है तो मैं कहता हूं प्रेम में और प्रज्ञा में।
निश्चय ही प्रेम परमात्मा है, प्रज्ञा परमात्मा है।


First part of Letter 10 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 28

मित्रो! मैं क्या सिखाता हूं। एक छोटा सा राज मैं सिखाता हूं। संसार में सम्राट बनने का राज मैं सिखाता हूं।
और इस छोटे से राज से बडा राज और क्या हो सकता है?
लेकिन, शायद तुम कहो कि संसार में सभी सम्राट कैसे हो सकते हैं? मैं कहता हूंः ‘‘हो सकते हैं। एक ऐसा साम्राज्य भी है, जहां सभी सम्राट हो सकते हैं।’’
लेकिन, जिस संसार को हम जानते हैं, वहां तो सभी गुलाम हैं। वहां तो वे भी गुलाम हैं, जो स्वयं को सम्राट समझने के भम्र में हैं।
एक जगत मनुष्य के बाहर है। एक जगत मनुष्य के भीतर भी है। बाहर के जगत में कोई कभी सम्राट नहीं हो सका। हालांकि अधिकतम लोगों ने उसके लिए संघर्ष किया है।
शायद तुम भी उसी संघर्ष में हो। उसी प्रतियोगिता में। तुम्हारी दौड भी शायद उसी के लिए है।
लेकिन जिसे सम्राट होना हो, उसे संसार को नहीं, स्वयं को ही जीतना पडता है।
क्राइस्ट ने कहाः ‘‘परमात्मा का साम्राज्य तुम्हारे भीतर ही है।’’
क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है कि जिन्होंने बाहर के राज्य को जीता है, उन्होंने स्वयं को खो दिया है? और जो स्वयं को ही खो दे, वह सम्राट कैसे होगा? सम्राट होने के लिए कम से कम स्वयं होना तो अनिवार्य ही है।
नहीं, नहीं। बाहर का द्वार और भी दरिद्रता में ले जाता है। उस जगत में जो सम्राट बने दीखते हैं, वे अपने गुलामों के भी गुलाम होते हैं।
और, वासनाएं, तृष्णाएं, कामनाएं मुक्त नहीं करतीं, वरन सूक्ष्म से सूक्ष्म और सख्त से सख्त बंधनों में बांध देती हैं।
7R Letter 11 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 40
मैं एक महानगरी में था। वहां कुछ युवक मिलने आए। वे पूछने लगेः ‘‘क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं? ’’ मैंने कहाः ‘‘नहीं। विश्वास का और ईश्वर का क्या संबंध? मैं तो ईश्वर को जानता हूं।’’
फिर मैंने उनसे एक कहानी कही।
किसी देश में क्रांति हो गई थी। वहां के क्रांतिकारी सभी कुछ बदलने में लगे थे। धर्म को भी वे नष्ट करने पर उतारू थे। उसी सिलसिले में एक वृद्ध फकीर को पकड कर अदालत में लाया गया। उस फकीर से उन्होंने पूछाः ‘‘ईश्वर में क्यों विश्वास करते हो? ’’ वह फकीर बोलाः ‘‘महानुभाव, विश्वास मैं नहीं करता। लेकिन, ईश्वर है। अब मैं क्या करूं? ’’ उन्होंने पूछाः ‘‘यह तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि ईश्वर है? ’’ वह बू.ढा बोलाः ‘‘आंखें खोल कर जब से देखा, तब से उसके अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं पडता है।’’
उस फकीर के प्रत्युत्तरों ने अग्नि में घृत का काम किया। वे क्रांतिकारी बहुत क्रुद्ध हो गए और बोलेः ‘‘शीघ्र ही हम तुम्हारे सारे साधुओं को मार डालेंगे। फिर...? ’’
वह बू.ढा हंसा और बोलाः ‘‘जैसी ईश्वर की मर्जी!’’
‘‘लेकिन हमने तो धर्म के सारे चिह्नों को ही मिटा डालने का निश्चय किया है। ईश्वर का कोई भी चिह्न हम संसार में न छोडेंगे।’’
वह बू.ढा बोलाः ‘‘बेटे! यह बडा ही कठिन काम तुमने चुना है, लेकिन ईश्वर की जैसी मर्जी। सब चिह्न कैसे मिटाओगे? जो भी शेष होगा, वही उसकी खबर देगा। कम से कम तुम तो शेष रहोगे ही, तो तुम्हीं उसकी खबर दोगे। ईश्वर को मिटाना असंभव है, क्योंकि ईश्वर तो समग्रता है।’’
ईश्वर को एक व्यक्ति की भांति सोचने से ही सारी भ्रांतियां खडी हो गई हैं।
ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं। वह तो जो है, वही है।
और ईश्वर में विश्वास करने के विचार से भी बडी भूल हो गई है।
प्रकाश में विश्वास करने का क्या अर्थ? उसे तो आंखें खोल कर ही जाना जा सकता है।
विश्वास अज्ञान का समर्थक है और अज्ञान एकमात्र पाप है।
आंखों पर पट्टियां बंधा विश्वास नहीं, वरन पूर्णरूपेण खुली हुई आंखोंवाला विवेक ही मनुष्य को सत्य तक ले जाता है।
7V Letter 11 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 40
और, सत्य ही परमात्मा है। सत्य के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है।


First part of Letter 12 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 50

एक दिन मैं सुबह-सुबह उठ कर बैठा ही था कि कुछ लोग आ गए। उन्होंने मुझसे कहाः ‘‘आप के संबंध में कुछ व्यक्ति बहुत आलोचना करते हैं। कोई कहता है आप नास्तिक हैं। कोई कहता है अधार्मिक। आप इन सब व्यर्थ की बातों का उत्तर क्यों नहीं देते? ’’ मैंने कहाः ‘‘जो बात व्यर्थ है, उसका उत्तर देने का सवाल ही कहां है? क्या उत्तर देने योग्य मान कर हम स्वयं ही उसे सार्थक नहीं मान लेते हैं? ’’ यह सुन कर उनमें से एक ने कहाः ‘‘लेकिन लोक में गलत बात चलने देना भी तो ठीक नहीं।’’ मैंने कहाः ‘‘ठीक कहते हैं। लेकिन जिन्हें आलोचना ही करना है, निंदा ही करनी है, उन्हें रोकना कभी भी संभव नहीं हुआ है। वे बडे आविष्कारक होते हैं और सदा ही नये मार्ग निकाल लेते हैं। इस संबंध में मैं आपको एक कथा सुनाता हूं।’’ और जो कथा मैंने उनसे कही, वही मैं आपसे भी कहता हूं।
पूर्णिमा की रात्रि थी। शुभ्र ज्योत्स्ना में सारी पृथ्वी डूबी हुई थी। शंकर और पार्वती अपने प्यारे नंदी पर सवार होकर भ्रमण को निकले थे। किंतु वे जैसे ही थोडे आगे गए थे कि कुछ लोग उन्हें मार्ग में मिले। उन्हें नंदी पर बैठे देख कर उन लोगों ने कहाः ‘‘देखो बेशर्मों को। बैल की जान में जान नहीं है और दो-दो उस पर चढ़ कर बैठे हैं!’’ उनकी यह बात सुनी तो पार्वती नीचे उतर गईं और पैदल चलने लगीं। किंतु थोडे ही दूर जाने पर फिर कुछ लोग मिले। वे बोलेः ‘‘अरे मजा तो देखो, सुकुमार अबला को पैदल चला कर यह कौन बैल पर बैठा चला जा रहा है भाई! बेशर्मी की भी हद है!’’ यह सुन कर शंकर नीचे उतर आए और पार्वती को नंदी पर बैठा दिया। लेकिन कुछ ही कदम गए होंगे कि फिर कुछ लोगों ने कहाः ‘‘कैसी बेहया औरत है; पति को पैदल चला कर खुद बैल पर बैठी है। मित्रो, कलियुग आ गया है।’’ ऐसी स्थिति देख आखिर दोनों ही नंदी के साथ पैदल चलने लगे। किंतु थोडी ही दूर न जा पाए होंगे कि कुछ लोगों ने कहाः ‘‘देखो, मूर्खों को। इतना तगडा बैल साथ में है और ये पैदल चल रहे हैं।’’ अब तो बडी कठिनाई हो गई। शंकर और पार्वती को कुछ भी करने को शेष न रहा। नंदी को एक वृक्ष के नीचे रोक वे विचार करने लगे। अब तक नंदी चुप था। अब वह हंसा और बोलाः ‘‘एक रास्ता मैं बताऊं? अब आप दोनों मुझे अपने सिरों पर उठा लीजिए।’’ यह सुनते ही शंकर और पार्वती को होश आया और दोनों फिर नंदी पर सवार हो गए। लोग फिर भी कुछ न कुछ कहते निकलते रहे। असल में लोग बिना कुछ कहे निकल भी कैसे सकते हैं? अब शंकर और पार्वती चांदनी की सैर का आनंद लूट रहे थे और भूल गए थे कि मार्ग पर कोई भी निकल रहा है।
8R Second part of Letter 13 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 41
का आवास भी आमने-सामने ही था। दोनों जीए भी साथ ही साथ और मरे भी साथ ही साथ। एक और गहरा आश्चर्य भी था। वह तो योगी और वेश्या को छोड और किसी को ज्ञात नहीं है। जैसे ही उनकी मृत्यु हुई, वैसे ही उन्हें ले जाने के लिए ऊपर से दूत आए, लेकिन वे दूत वेश्या को लेकर स्वर्ग की ओर चले और योगी को लेकर नरक की ओर। योगी ने कहाः ‘‘मित्रो, निश्चय ही कुछ भूल हो गई है! वेश्या को स्वर्ग की ओर लिए जाते हो और मुझे नरक की ओर? यह कैसा अन्याय है--यह कैसा अंधेर है? ’’ उन दूतों ने कहाः ‘‘नहीं, महानुभाव, न भूल है, न अन्याय, न अंधेर। कृपा कर थोडा नीचे देखें।’’ योगी ने नीचे धरती की ओर देखा। वहां उसके शरीर को फूलों से सजाया गया था और उसका विशाल जुलूस निकाला जा रहा था। हजारों-हजारों लोग रामधुन गाते हुए, उसके शरीर को श्मशान की ओर ले जा रहे थे। वहां उसके लिए चंदन की चिता तैयार थी, और दूसरी ओर सडक के किनारे वेश्या की लाश पडी थी। उसे कोई उठानेवाला भी नहीं था, इसलिए गीध और कुत्ते उसे फाड-फाड कर खा रहे थे।
यह देख वह योगी बोलाः ‘‘धरती के लोग ही कहीं ज्यादा न्याय कर रहे हैं!’’
उन दूतों ने उत्तर दियाः ‘‘क्योंकि धरती के लोग केवल वही जानते हैं, जो बाहर था। शरीर से ज्यादा गहरी उनकी पहुंच नहीं। किंतु असली सवाल तो शरीर का नहीं, मन का है। शरीर से तुम संन्यासी थे, किंतु मन में तुम्हारे क्या था? क्या सदा ही तुम्हारा मन वेश्या में अनुरक्त नहीं था? क्या सदा ही तुम्हारे मन में यह वासना नहीं जागती रही कि उधर वेश्या के घर में कैसा सुंदर संगीत और नृत्य चल रहा है, वहां बडा आनंद आता होगा और मेरा जीवन कैसा नीरस है। और उधर वह वेश्या थी। वह निरंतर ही सोचती थी कि योगी का जीवन कैसा आनंदपूर्ण है! रात्रि को जब तुम भजन गाते थे तो वह भाव-विभोर हो रोती थी। इधर संन्यासी के अहंकार से तुम भरते जा रहे थे, उधर पाप की पीडा से वह विनम्र होती जाती थी। तुम अपने तथाकथित ज्ञान के कारण कठोर होते गए और वह अपने अज्ञान-बोध के कारण सरल। अंततः तुम्हारा अहंकारग्रस्त व्यक्तित्व बचा और उसका अहंशून्य। मृत्यु के क्षण में तुम्हारे चित्त में अहंकार था, वासना थी। उसके चित्त में न अहंकार था, न वासना। उसका चित्त तो परमात्मा के प्रकाश, प्रेम और प्रार्थना से परिपूर्ण था।’’
जीवन का सत्य बाह्य आवरण में नहीं है। फिर बाह्य के परिवर्तन से क्या होगा?
सत्य है बहुत आंतरिक-आत्यंतिक रूप से आंतरिक। उसे जानने और पाने के लिए व्यक्तित्व की परिधि पर नहीं, केंद्र पर श्रम करना होता है। उस केंद्र को खोजो। खोजने से वह निश्चय ही मिलता है, क्योंकि वह स्वयं में ही तो छिपा है।
धर्म परिधि का परिवर्तन नहीं, अंतस की क्रांति है।
धर्म परिधि पर अभिनय नहीं, केंद्र पर श्रम है।
धर्म श्रम है, स्वयं पर। उस श्रम से ही स्व मिटता और सत्य उपलब्ध होता है।
8V Second part of Letter 12 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 50
जीवन में यदि कहीं पहुंचना हो तो राह में मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति की बात पर ध्यान देना आत्मघातक है।
वस्तुतः जिस व्यक्ति की सलाह का कोई मूल्य है, वह कभी बिना मांगे सलाह देता ही नहीं है।
और यह भी स्मरण रहे कि जो स्वयं के विवेक से नहीं चलता है, उसकी गति हवा के झोंकों में उडते सूखे पत्तों की भांति हो जाती है।


First part of Letter 13 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 41

मैं मन के आमूल परिवर्तन का आग्रह करता हूं। शरीर के तल पर किसी भी परिवर्तन का कोई गहरा मूल्य नहीं। मात्र आचरण की बदलाहट अपर्याप्त है, क्योंकि अंतस की क्रांति के अभाव में वह आत्मवंचना से ज्यादा नहीं है।
लेकिन जिनके चित्त में भी स्वयं को परिवर्तित करने का विचार उठता है, वे शीघ्र ही हृदय को बिना बदले ही वस्त्रों को बदलने में संलग्न हो जाते हैं। स्वयं को धोखा देने की यह अंतिम विधि है। इससे सावधान होना बहुत आवश्यक है। अन्यथा संन्यास भी बाह्य घटना मात्र रह जाता है। संसार तो बाह्य है, लेकिन संन्यास भी बाह्य ही हो तो जीवन बहुत ही अंधकारपूर्ण पथों पर भटक जाता है।
वासना का पथ तो अज्ञान है ही। किंतु यदि त्याग भी बाह्य हो, तो वह और भी अज्ञानपूर्ण मार्गों पर ले जाता है।
वस्तुतः चेतना का स्वयं से बाह्य होना ही अज्ञान और अंधकार है। फिर इससे कोई भेद नहीं पडता है, वह बाह्यता संसार को लेकर है, या संन्यास को।
चित्त बाह्यता से घिरा हो, तो भोग भी उसे बाहर रखता है और त्याग भी।
और चित्त बाह्य से मुक्त हो, तो सहज ही स्वयं में आ जाता है।
बाह्य की सार्थकता का आभास संसार है।
और बाह्य की व्यर्थता का बोध संन्यास।
एक कथा मैंने सुनी हैः
एक नगर में एक ही दिन दो मृत्यु हो गई थीं। बडी अजीब घटना हुई थी। एक योगी और एक वेश्या--दोनों एक ही दिन एक ही घडी में संसार से चल दिए थे। दोनों
9R Letter 14 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 42
अहंकार हृदय को पाषाण बना देता है। जीवन में जो भी सत्य है, शिव है, सुंदर है, वह उस सबकी मृत्यु है। इसलिए अहंकार के अतिरिक्त परमात्मा के मार्ग में कोई बाधा नहीं। क्योंकि पाषाण-हृदय प्रेम को कैसे जानेगा? और जहां प्रेम नहीं, वहां परमात्मा कहां? प्रेम के लिए तो सरल और विनम्र हृदय चाहिए--सरल और संवेदनशील। और अहंकार जितना प्रगाढ़ होता है, उतना ही हृदय अपनी सरलता और संवेदनशीलता खो देता है।
‘‘धर्म क्या है? ’’ जब कोई मुझ से पूछता है तो मैं कहता हूंः ‘‘हृदय की सरलता--हृदय की संवेदनशीलता।’’
लेकिन, धर्म के नाम से जो कुछ प्रचलित है, वह तो अहंकार के ही बहुुत से सूक्ष्म और जटिल रूपों की अभिव्यक्ति है।
अहंकार समस्त हिंसा का मूल है।
‘मैं हूं’--यह भाव ही हिंसा है। फिर ‘मैं कुछ हूं’--यह तो अतिहिंसा है।
सत्य को, सौंदर्य को, हिंसक चित्त नहीं पा सकता है। क्योंकि हिंसा स्वयं को कठोर कर देती है। कठोरता का अर्थ है, स्वयं के द्वार का बंद हो जाना। और जो स्वयं में बंद है, वह सर्व से कैसे संबंधित हो सकता है?
एक फकीर था, हसन। बहुत दिन का भूखा, वह एक गांव के बाहर जाकर ठहरा था। उसके कुछ साथी भी साथ थे। वे भी लंबी यात्रा से थके-मांदे और भूखे-प्यासे थे। वे जाकर जैसे ही उस खंडहर में ठहरे थे कि एक अपरिचित व्यक्ति बहुत सा भोजन और फल लेकर आया और बोलाः ‘‘यह क्षुद्र सी भेंट उनके लिए है जो तपस्वी हैं और संन्यासी हैं।’’ उस व्यक्ति के चले जाने के बाद हसन ने अपने साथियों से कहाः ‘‘मित्रो, मुझे आज की रात्रि भी भूखा ही सोना होगा, क्योंकि मैं कहां हूं तपस्वी, कहां हूं संन्यासी? असल में मैं ही कहां हूं? ’’
‘मैं नहीं हूं’--इसे जो जान लेते हैं, वे परमात्मा को जान लेते हैं।
‘मैं नहीं हूं’--इसे जो पा लेते हैं, वे परमात्मा को पा लेते हैं।
9V Letter 15 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 19
एक दिन स्वर्ग के द्वार पर बडी भीड थी। कुछ पंडित चिल्ला रहे थेः ‘‘जल्दी द्वार खोलो।’’ लेकिन द्वारपालों ने उनसे कहाः ‘‘थोडा ठहरिए। हम आपके संबंध में पता लगा लें कि जो ज्ञान आपने पाया, वह शास्त्रों से पाया था या स्वयं से। क्योंकि शास्त्रों से पाए हुए ज्ञान का यहां कोई मूल्य नहीं है।’’
इतने में ही एक संन्यासी भीड के आगे आया और बोलाः ‘‘द्वार खोलो। मैं स्वर्ग में प्रवेश पाना चाहता हूं। मैंने बहुत उपवास किए और शारीरिक कष्ट सहे। मेरे समय में मुझसे बडा और कौन तपस्वी था? ’’
द्वारपालों ने कहाः ‘‘स्वामी जी, थोडा ठहरिए। हम पता लगा लें कि तपश्चर्या आपने क्यों की थी? क्योंकि जहां कुछ भी पाने की आकांक्षा है, वहां न त्याग है न तप है।’’
और तभी जनता के कुछ सेवक आ गए। वे भी स्वर्ग में प्रवेश चाहते थे।
द्वारपालों ने उनसे कहाः ‘‘आप भी बडी भूल में पड गए हैं। जो सेवा पुरस्कार मांगती है, वह सेवा ही नहीं है। फिर भी हम आपके संबंध में पता लगा लेते हैं।’’
और तभी द्वारपालों की दृष्टि सबसे पीछे अंधेरे में खडे एक व्यक्ति पर गई। उन्होंने भीड से उस व्यक्ति को आगे आने के लिए मार्ग देने को कहा। उस व्यक्ति की आंखों से आंसू गिर रहे थे। उसने कहाः ‘‘निश्चय ही भूल से मुझे यहां ले आया गया है। कहां मैं और कहां स्वर्ग? मैं हूं निपट अज्ञानी। शास्त्रों को बिल्कुल नहीं जानता हूं। संन्यास से बिल्कुल अपरिचित हूं, क्योंकि मेरा कुछ था ही नहीं तो मैं त्याग क्या करता? और सेवा? सेवा मैंने कभी नहीं की। उतनी मेरी सामथ्र्य ही कहां? प्रेम जरूर मेरे हृदय से बहता था। लेकिन प्रेम तो स्वर्ग-प्रवेश की कोई योग्यता नहीं है। फिर मैं स्वयं भी स्वर्ग में प्रवेश नहीं करना चाहता हूं। कृपा करें और बतावें कि नरक का द्वार कहां है। शायद, वहीं मेरा स्थान भी है और वहीं मेरी आवश्यकता भी है।’’ उसके यह कहते ही द्वारपालों ने स्वर्ग के द्वार खोल दिए और कहाः ‘‘मत्र्यों में आप धन्य हैं। आपने अमृतत्व की उपलब्धि कर ली। स्वर्ग के द्वार आपके लिए सदा ही खुले हैं। आपका स्वागत है।’’
क्या जीवन में अंतिम होना ही परमात्मा की प्रार्थना नहीं है?
और क्या जीवन में अंतिम होना ही मोक्ष नहीं है?
10 Second part of Letter 10 : Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 28
वासना की जंजीरों से सुदृढ़ जंजीरें न तो अब तक बन सकी हैं और न आगे ही बन सकती हैं। असल में उतना मजबूत फौलाद कोई और होता ही नहीं। इन अदृश्य जंजीरों से बंधा व्यक्ति सम्राट कैसे हो सकता है?
एक सम्राट थाः प्रसिया का फ्रेड्रिक महान। एक संध्या राजधानी के बाहर एक बूढे़ आदमी से उसे धक्का लग गया। संकरी पगडंडी थी और सांझ का अंधेरा भी घिर रहा था। फ्रेड्रिक ने क्रोध से उस बूढे़ से पूछाः ‘‘आप कौन हैं? ’’ उस वृद्ध ने कहाः ‘‘एक सम्राट।’’ फ्रेड्रिक ने साश्चर्य कहाः ‘‘सम्राट? ’’ और फिर मजाक में पूछाः ‘‘किस देश पर आपका राज्य है? ’’ उस बूढे़ ने कहाः ‘‘स्वयं पर।’’
निश्चय ही जिनका स्वयं पर राज्य है, वे ही सम्राट हैं।