प्रिय मां,
संध्या रुकी सी लगती है। पश्चिमोन्मुख सूरज देर हुए बादलों में छिप गया है पर रात्रि अभी नहीं हुई है। एकांत है। घर पर अकेला ही हूँ। मन में भी वहां हूँ जहां शून्य है। मन भी अद्भुत है। प्याज की गांठ की तरह अनुभव होता है। एक दिन प्याज को देखकर यह उपमा सूझी थी। उसे छीलता गया, छीलता गया – पर्तों पर पर्तें निकलती गईं और फिर हाथ में कुछ भी न बचा। मोटी, खुरदुरी पर्तें; फिर मुलायम चिकनी पर्तें फिर कुछ भी नहीं। मन भी ऐसा ही है। उघाड़ते चलें : स्थूल पर्तें फिर सूक्ष्म पर्तें फिर शून्य। विचार, वासनायें, अहंकार और बस। इनके पार शून्य है। इस स्थिति को ही मैं ध्यान में आना कहता हूँ। यह शून्य ही हमारा स्वरूप है : कहें, आत्मा चाहे कहें अनात्मा। शब्द से कुछ अर्थ नहीं है। विषय जहां नहीं है, वहां है वह, जो है। पश्चिम के एक दार्शनिक ह्यूम ने कहा है : “जब भी अपने में जाता हूँ कोई ‘मैं’ मुझे वहां नहीं मिलता है : या तो विचार से टकराता हूँ, या किसी वासना से, या स्मृति से।” यह बात ठीक ही है। ह्यूम थोड़ा और गहरा जाता, तो वहां पहुँच जाता जहां टकराने को कुछ भी नहीं है। वहीं है सत्ता। उस सत्ता पर ही सारा खेल है। सब सतह पर ही रुक जाते हैं इससे आत्म-परिचय नहीं होपाता है। सतह पर संसार है : केन्द्र में ब्रह्म है।
इस केन्द्र पर पहुँचना कितना आनंददायी है? इस केन्द्र पर पहुँचकर नया जन्म होजाता है।